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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


हवलदार चन्द्रसिंह की बात का अर्थ क्या हुआ? यही कि जो दुश्मन है, वार करना चाहता है, मिटाना चाहता है, उस पर हम वार करें, उसे मिटाएँ, यही सिपाही का प्रशिक्षण है, स्वभाव है, संस्कार है, पर जो दुश्मन नहीं, जो हमारा बुरा नहीं, भला चाहता है और जिसके पास मारने को हथियार तक नहीं, सिपाही का हाथ उस पर क्यों उठे, सिपाही उसे क्यों मारे?

वही मेरे पानवाले भाई की बात कि जो मुझसे बेईमानी करे, मैं उससे बेईमानी करूँ, पर जो मुझसे बेईमानी नहीं करता, मैं उससे बेईमानी करूँ, तब भी मेरा विश्वास करता है-उससे मैं बेईमानी कैसे करूँ?

अब मेरे दायीं ओर खड़े थे हवलदार चन्द्रसिंह और बायीं ओर पानवाला भाई। मैंने दोनों की ओर देखकर कहा, मेरे हवलदार, तुम हो हिंसक का विवेक और पानवाले भाई, तुम बेईमान का विवेक। मैं तुम दोनों को एक साथ नमस्कार करता हूँ !

और तुम कौन हो भाई? यह मेरे पलँग के पास कौन आ खड़ा हुआ? “मैं चोर हूँ-भैरोसिंह। मेरी भी एक कहानी है।"

तो सुनाओ अपनी कहानी, मेंने कहा तो बोला, “दिल्ली-बम्बई लाइन पर पिछले बीस वर्षों से मैं चोरी का रोज़गार करता हूँ। बड़ा शानदार काम है मेरा कि 'इन्वेस्टमेण्ट' कुछ नहीं, पर ‘डिविडेण्ड' भरपूर ! कभी-कभी तो एक ही हाथ ऐसा बैठता है कि जन्मभर खाओ तो ख़त्म न हो, पर जोड़ रखना मेरे पेशे में धर्म-विरुद्ध है, इसलिए गंगा बहती रहती है, जैसे आता है, वैसे जाता है।

तो उस दिन मैं लाइन पर अपने काम की तलाश में था कि मैंने देखा कुछ लोगों के पास रुपयों और ख़रीज़ से भरा एक पूरा कनस्तर रखा है। उन्होंने उसमें एक किताब-सी रखी तो मैंने भाँप लिया कि माल चकाचक है।

एक बूढ़ा उसकी देख-रेख कर रहा था। वह उठकर ज़रा टट्टी में गया और मैं उसे उठाकर दूसरे कम्पार्टमेण्ट में जा पहँचा। मैंने सोचा कि हल्ला मचेगा तो इसे झाड़ियों में फेंक दूंगा और अगले स्टेशन पर उतर जाऊँगा पर कोई हल्ला नहीं मचा तो समझ लिया कि बूढ़ा टट्टी से आकर सो गया है। यों ही ज़रा ढक्कन उठाकर देखा तो लक्ष्मी का धवल रूप आँखें चौधिया रहा था, पर यह किताब क्या है? देखा तो गोवा-सत्याग्रह की रसीदबही थी। पूछकर जाना कि गोवा में लोग देश के लिए बलिदान होने को जा रहे हैं और जनता हर स्टेशन पर दान देती है।

ओह, इस कनस्तर में सत्याग्रहियों को मिले दान का रुपया है और मैं इसे चुरा लाया ! एक बार मुझे ध्यान आया कि बहुत दिन से ताजमहल होटल में नूरजहाँ के साथ तीन दिन गुच्च रहने की इच्छा थी, सो इस कनस्तर से पूरी हो जाएगी, पर दूसरे ही क्षण मेरी आत्मा ने कहा, कम्बख्त, जो लोग देश के लिए मिट रहे हैं, उन्हें कुछ देना चाहिए या उनका माल हड़पना !

बस, मैंने अपनी जेब देखी और उसमें जो बाईस रुपये थे. वे उस कनस्तर में रख दिये। एक परचा लिखा कि भाइयो, मैंने आपका कनस्तर चरा लिया था, पर रसीदबही से आपके बलिदान की बात जानकर जेब के बाईस रुपये इसमें रख, इसे आपके पास भेज रहा हूँ। ईश्वर आपको सफल करे और एक आदमी के हाथों कनस्तर सत्याग्रहियों के डिब्बे में भिजवा दिया।"

कहानी सुनकर मैंने कहा, ठीक है, यह चोर का विवेक है तो सार यह कि मनुष्य किसी भी स्थिति में हो, विवेक को कभी हाथ से न जाने दे; क्योंकि मनुष्य के जीवन में विवेक ही मार्गदर्शक प्रदीप है। और यह भी कि मनुष्य लाख बुरा बन जाए, पर कभी बुरा नहीं होता; उसकी अच्छाई दब भले ही जाए, पर मरती कभी नहीं !

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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