कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
अब स्थिति यह कि कभी मैं देख रहा हूँ स्थिर जड़ को और कभी हिलते-झूमते ऊपरी भाग को। लग रहा है कि कोई बात मन में उठ रही है और वह उलझन को सुलझानेवाली है, पर वह बात क्या है?
बात मन की तह से ऊपर आ रही है-ऊपर आ गयी है।
बात यह कि हमारा जीवन भी इस वक्ष की तरह होना चाहिए कि उसका कुछ भाग हिलने-झुकनेवाला हो और कुछ भाग स्थिर रहनेवाला, यही जीवन की पूर्ण कृतार्थता है।
बात अपने में पूर्ण है, पर ज़रा स्पष्टता चाहती है और वह स्पष्टता यह है कि हम जीवन के विस्तृत व्यवहार में हिलते-झुकते रहें, समन्वयवादी रहें, पर सत्य के, सिद्धान्त के प्रश्न पर हम स्थिर रहें, दृढ़ रहें और टूट भले ही जाएँ, पर हिलें नहीं, समझौता करें नहीं।
जीवन में देह है, जीवन में आत्मा है। देह है नाशशील और आत्मा है शाश्वत, तो आत्मा को हिलना-झुकना नहीं है और देह को निरन्तर हिलना झुकना ही है; नहीं तो हम हो जाएँगे रामलीला के रावण की तरह, जो बाँस की खपच्चियों पर खड़ा रहता है-न हिलता है, न झुकता है। हमारे विचार लचीले हों, परिस्थितियों के साथ वे समन्वय साधते चलें, पर हमारे आदर्श स्थिर हों। हमारे पैरों में जीवन के मोर्चे पर डटे रहने की भी शक्ति हो और स्वयं मुड़कर हमें उठने-बैठने-लेटने में मदद देने की भी।
संक्षेप में जीवन की कृतार्थता यह है कि वह दृढ़ हो, पर अड़ियल न हो।
दृढ़, जो औचित्य के लिए, सत्य के लिए टूट जाता है, पर हिलता और झुकता नहीं।
अड़ियल, जो औचित्य और अनौचित्य, समय-असमय का विचार किये बिना ही अड जाता है, और टूट तो जाता है, पर हिलता-झुकता नहीं।
दो टूक बात यों कि जीवन वह है, जो समय पर अड़ भी सकता है और समय पर झुक भी, पर ढूँठ वह है, जो अड़ ही सकता है, झुक नहीं सकता।
एक है जीवन्त दृढ़ता और दूसरा निर्जीव जड़ता।
हम दृढ़ हों, जड़ नहीं।
मैंने देखा, बाँझ का पेड़ अब भी हिल रहा था, झुक रहा था और दूंठ अनझुका, अनहिला, ज्यों-का-त्यों खड़ा।
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- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
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- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
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- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में