कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
मुझे ध्यान आया कि जीते-जागते जीवन में भी एक ऐसी मनोदशा आती है, जब मनुष्य हिलने और झुकने से इनकार कर देता है। अतीत में रावण और हिरण्यकश्यप इस दशा के प्रतीक थे तो इस युग में हिटलर और स्टालिन. जो केवल एक ही मत को सही मानते रहे और वह स्वयं उनका मत था। आज की भाषा में इसी का नाम है डिक्टेटरी-अधिनायकता।
विश्व की भाषा है- दे, ले।
विश्व की जीवन-प्रणाली है- कह, सुन।
विश्व की यात्रा का पथ है- मान, मना।
इन तीनों का समन्वय है-हिलना-झुकना और समझौता-समन्वय। जिसमें यह नहीं है, वह जड़ है; भले ही वह इस ढूँठ की तरह निर्जीव हो या रावण की तरह ज़िद्दी !
मेरी खिड़की के सामने खड़ा हिल रहा था बाँझ का विशाल पेड़ और दूर दीख रहा था वह दूँठ। समय की बात; तभी पास के घर से निकला एक मनुष्य और वह अपनी छोटी कुल्हाड़ी से उस दूंठ का एक छोटा टहना काटने लगा। सामने ही दीख रही थी सड़क, जिस पर अपनी कुदाल से काम कर रहे थे कुछ मज़दूर।
कुल्हाड़ी और कुदाल; कुदाल और कुल्हाड़ी-मैंने बार-बार इन शब्दों को दोहराया और तब आया मेरे मन में यह वाक्य-विश्व की भाषा है-दे, ले; विश्व की जीवन-प्रणाली है कह, सुन; विश्व की यात्रा का पथ है-मान, मना; अर्थात् हिल भी और झुक भी, पर जो इन्हें भूलकर जड़ हो जाता है, वह ठूठ हो, पर्वत का शिखर हो, अहंकारी मानव हो, विश्व उससे जिस भाषा में बात करता है उसी के प्रतिनिधि हैं ये कुल्हाड़ी-कुदाल।
साफ़-साफ़ यों कि जीवन में दो भी, लो भी, कहो भी, सुनो भी, मानो भी, मनाओ भी; और यह सब नहीं तो तैयार रहो कि तुम काट डाले जाओ, खोद डाले जाओ, पीस डाले जाओ !
मैं खिड़की से उठकर अपने पलंग पर आ पड़ा। बाँझ का पेड़ अब भी हिल रहा था, झुक रहा था, झूम रहा था, पर तभी मेरे मन में उठा एक प्रश्न-तो क्या जीवन की चरितार्थता बस यही है कि जीवन में हवा का झोंका आया और हम हिल गये? जीवन में संघर्ष का झटका आया और हम झुक गये? साफ़-साफ़ यों कि यहाँ-वहाँ हिलते-झुकते रहना ही महत्त्वपूर्ण है और जीवन की स्थिरता-दृढ़ता जीवन के नक़ली सत्य ही हैं?
प्रश्न क्या है, कम्बख्त बिजली की तेज़ शॉक है यह, जो यों धकियाता है कि एक बार तो जड़ से ऊपर तक सब पाया-सँजोया अस्त-व्यस्त हो उठे। सोचा-नहीं जी, यह हिलना और झुकना जीवन की कृतार्थता नहीं, अधिक-से-अधिक यह कह सकते हैं कि विवशता है। जीवन की वास्तविक कृतार्थता तो न हिलना, न झुकना ही है, यानी दृढ़ रहना ही है-“मरियम सो मरियम, पै टरियम नहीं।"
मैं अपने पलंग पर पड़ा देखता रहा कि बाँझ का पेड़ झुक रहा है, झूम रहा है, हिल रहा है और दूर पर खड़ा टूट न हिलता है, न झुकता है। जीवन है वृक्ष में, जो जीवन की कृतार्थता-दृढ़ता से हीन है और वह दृढ़ता है ढूँठ में, जो जीवन से हीन है; अजीब उलझन है यह !
तभी हवा का एक तेज़ झोंका आया और बाँझ हिल उठा। मेरी दृष्टि उसकी झूमती देह-यष्टि के साथ रपटी-रपटती उसकी जड़ तक चली गयी और तब मैंने फिर देखा कि हवा का झोंका आता है तो टहनियाँ हिलती हैं, तना भी झूमता है, पर अपनी जगह जमी रहती है उसकी जड़। हवा का झोंका हलका हो या तेज़, वह न झुकती है, न झूमती है।
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