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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

एक था पेड़ और एक था ठूंठ !


जिस मकान में मैं ठहरा, उसकी खिड़की के सामने ही खड़ा था एक पूरा पनपा बाँझ का पहाड़ी पेड़। पलंग पर लेटे-लेटे वह यों दीखता कि जैसे कुशल-समाचार पूछने को आया कोई मेरा ही मित्र हो।

एक दिन उसे देखते-देखते इस बात पर मेरा ध्यान गया कि यह इतना बड़ा पेड़ हवा का तेज़ झोंका आते ही पूरा-का-पूरा इस तरह हिल जाता है, जैसे बीन की तान पर कोई साँप झूम रहा हो और इसका ऊपर का हिस्सा हवा जब और भी तेज़ हो जाती है तो काफ़ी झुक जाता है, पर हवा के हलका पड़ते ही वह फिर सीधा हो जाता है।

हवा मौज में थी, अपने झोंकों में झूम रही थी, इसलिए बराबर यही क्रिया होती रही और मैं उसे देखता रहा। देखता क्या रहा, उसकी झुक-झूम में रस लेता रहा। पड़े-पड़े वह पेड़ पूरा न दीखता था, इसलिए मैं पलंग से खिड़की पर आ बैठा। अब मुझे वह पेड़ जड़ से फुगल तक दिखाई देने लगा और मेरा ध्यान इस बात की ओर गया कि हवा कितनी भी तेज़ हो, पेड़ की जड़ स्थिर रहती है-हिलती नहीं है।

यहीं बैठे, मेरा ध्यान एक दूसरे पेड़ पर गया, जो इस पेड़ से काफ़ी निचाई में था। पेड़ क्या था, पेड़ का दूँठ था-ठूठ; सूखा वृक्ष और सूखा वृक्ष माने निर्जीव मुरदा वृक्ष। सोचा, यह वृक्ष का कंकाल है; जैसा एक दिन सभी को होना है ! अब मैं कभी इस हरे-भरे पेड़ की ओर देखता, कभी उस सूखे ठूँठ की तरफ़। यों ही देखते-भालते मेरा ध्यान इस बात की ओर गया कि हवा धीमे चले या वेग से, यह ठूँठ न हिलता है, न झुकता है।

न हिलना, न झुकना; मन में यह दो शब्द आये और मैंने आप ही आप इन्हें अपने में दोहराया-न हिलना, न झुकना।

दूर अन्तर में कुछ स्पर्श हुआ, पर वह स्पर्श सूक्ष्म था; यों ही संकेत-सा। शब्द चक्कर काटते रहे-न हिलना, न झुकना और तब आया यह वाक्य-न हिलना, न झुकना जीवन की स्थिरता का, दृढ़ता का चिह्न है और वह वीर पुरुष है, जो न हिलता है, न झुकता है।

तभी मैंने फिर देखा उस ढूँठ की ओर। वह न हिल रहा था, न झुक रहा था ! मन में अचानक प्रश्न आया-न हिलना, न झुकना जीवन की स्थिरता का चिह्न है, पर इस ढूँठ में जीवन कहाँ है? यह तो मुरदा पेड़ है!

अब मेरे सामने एक विचित्र दृश्य था कि जो जीवित था, वह हिल रहा था, झुक रहा था और जो मृतक था वह न हिल रहा था, न झुक रहा था। तो न हिलना, न झुकना जीवन की स्थिरता का चिह्न हुआ या मृत्यु की जड़ता का?

अजीब उलझन थी, पर समाधान क्या था? मैं दोनों को देख रहा था, देखता रहा और तब मेरे मन में आया कि जो परिस्थितियों के अनुसार हिलता, झुकता नहीं, वह वीर नहीं, जड़ है; क्योंकि हिलना और झुकना ही जीवन का चिह्न है।

हिलना और झुकना; अर्थात् परिस्थितियों से समझौता। जिस जीवन में समझौता नहीं, समन्वय नहीं, सामंजस्य नहीं, वह जीवन कहाँ है? वह तो जीवन की जड़ता है; जैसे यह दूँठ और जैसे यह पहाड़ का शिखर।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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