कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
पाँच
एक और महिला के सम्बन्ध में मेरा निजी अनुभव है कि वह अपनी एक सहेली से घृणा करने लगी। यह घृणा बढ़कर प्रचण्ड होती गयी और इसका आश्चर्यजनक फल यह हुआ कि उस महिला की खाल सख्त हो गयी -उसका कोमल स्पर्श रूखा होता चला गया।
उन्होंने इसके लिए विटामिन की बहुत गोलियाँ खायीं, पर उन्हीं के शब्दों में उनकी खाल आदमी से हाथी की होती गयी। खाल के साथ ही उनकी आकृति पर भी इसका प्रभाव पड़ा और वे जैसे पुरुष हो चलीं। चेहरे की सारी लुनाई जाती रही, परुषता आ गयी और आश्चर्य की बात है कि उनकी हँसी की मीठी खिलखिल एक करख्त खाँ-खाँ में बदल गयी।
बीच में बहुत दिन उनसे मिलना नहीं हुआ, पर इसके बाद एक दिन बातचीत हुई तो देखा कि उनकी वह परुषता अब चेहरे पर नहीं है और क्या बातचीत, क्या हँसी, सभी में पुरानी मिठास लौट रही है।
मैंने ज़रा बचकर पूछा, “अब तो आपका स्वास्थ्य अच्छा है !"
“और इसका श्रेय आपकी दवा को है !" वे खिलकर कह उठीं, तो मैं भौचक ! अत्यन्त गम्भीर होकर उन्होंने कहा, “वह सब मेरे भीतर उमड़ी घृणा की प्रचण्ड वृत्ति का फल था। इसीलिए किसी औषध ने काम नहीं किया, पर अचानक एक दिन मैंने आपकी छोटी कहानी पढ़ी-‘झरना हँसा' -और बस मेरा जीवन बदल गया, मेरी घृणा पिघल गयी और धीरे-धीरे में कोमल होती चली गयी।''
जहाँ मतभेद हो, विरोध हो, झगड़ा-झंझट हो, वहाँ भी प्रेम करो, सेवा करो, सहो और यह सम्भव न हो तो उपेक्षा करो, तटस्थ होकर वह फ़ाइल सामने से सरका दो, पर ईर्ष्या न करो, क्रोध न करो, घृणा न करो। ये वृत्तियाँ हृदय में जाग ही उठें तो उन्हें स्थायी न होने दो, प्रचण्ड न होने दो, अपने पर उन्हें छाने न दो। विवेक से, विचार से, सहिष्णुता से, उन्हें दूर भगा दो, उन्हें शान्त कर दो; क्योंकि ये उस आग की लपटें हैं, जो जलायी जाती हैं दूसरों को फूंकने के लिए, पर फूंकती हैं सिर्फ अपने को ही। ये ऐसे विष-बुझे तीर हैं, जो चलाये जाते हैं दूसरों का संहार करने के लिए, पर चारों ओर घूमने के बाद ये काटते हैं उसी हाथ को जिसका बल पा धनुष से छूटते हैं।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में