कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
"तो भाई, हमें बताओ आदमी बनने का नया नुसख़ा, आज तो जो बीती, सो बीती, पर फिर तो न बीते।''
“बहुत अच्छा, अगर आप हमें गुरु बनाने पर उतारू हो गये हैं तो जरूर बाँधेगे आपको कण्ठी और कण्ठी क्या, लीजिए आपकी दीक्षा ही हम टिकिट ख़रीदने के महामन्त्र से आरम्भ करते हैं।
टिकिट ख़रीदते समय आदमी बनने का पुराना नुसखा तो वह था जो तुमने आज़माया, पर यह नया नुसखा वह है, जो एक बार सोमवती अमावस्या पर मैंने आज़माया था। गरमी का मौसम और सोमवती का स्नान, भला फिर हरद्वार जाने को किसका जी है, जो जाऊँ-जाऊँ न करे और हम तो ठहरे पुरुष, जी पर ज़ब्त भी कर लें, पर श्रीमतीजी को रोकना तो गंगा की धार को रोकना-टोकना है। खैर साहब, हम पहुँच गये स्टेशन, पर टिकिट-घर की खिड़की पर जो ध्यान गया तो सच मानिए कुरुक्षेत्र का दृश्य दिखाई दिया-धक्कम-धक्का तो था ही. घमाघसी भी थी और शोर-शराब्बा भी। दूर से देखो तो लगता था कि अच्छी-खासी रस्साकशी हो रही है।
सामान के पास बैठाया श्रीमतीजी को और स्वयं सर के खिड़की की तरफ़, खिड़की पर पहुँचना तो सम्भव ही न था, इसलिए पास की दूसरी खिड़की पर जा टिके। वहाँ से वह बाबू दिखाई देता था और भीड़ दूर न थी। क्यू लगा हो तो जल्दी-जल्दी टिकिट मिलते हैं और भीड़ हो तो देर लगती ही है। लोगों ने इस देरी को बाबू की ढील समझा और दो-चार उसे गरम-गरम बोल बोले। बस मेरे लिए यही अवसर था कि अपना नया नुसख़ा पिलाऊँ और आदमी बनकर काम साधूं।
मैंने ऊँची आवाज़ से कहा, भाइयो, भीड़ तो तुम खुद करते हो और क़सूर बताते हो बाबूजी का, यह अजीब बात है, वे बेचारे ख़ाली बैठे सिगरेट तो नहीं पी रहे, काम ही कर रहे हैं। सुबह से काम में जुटते हैं, खड़े-खड़े पैरों में खून उतर आता है, ज़रा इस पर भी तो ध्यान दो।
मैंने देखा, टिकिट बाबू के मन पर मेरी बात का यह असर हुआ कि वे प्रसन्न हुए। तभी मैंने उनकी ओर देखकर कहा, बाबूजी, आप लोगों की बात का बुरा न मानें। बात यह है कि अब सरकार जनता की है, इसलिए जनता के लोग सरकारी आदमियों को अपने घर का ही आदमी समझते हैं और बाबूजी, अपनों के लिए तो गुस्सा भी प्यार होता है।
मैंने देखा कि भीड़ पर भी मेरी बात का अच्छा असर पड़ा और रेल-पेल जरा कम हो गयी।
थोड़ी देर बाद ज़रा फिर तेजी आयी तो मैंने ऊँची आवाज़ में कहा, भाइयो, बाबूजी हवा की तरह टिकिट दे रहे हैं। घबराओ मत, सबको टिकिट मिल जाएगा और किसी की गाड़ी नहीं छूटेगी।
भीड़ में शान्ति आ गयी और बाबूजी ने मेरी तरफ़ नरम आँखों से देखा तो मैंने उसी खिड़की से रुपये भीतर डालकर अँगुलियों के इशारे से दो टिकिट माँगे और वे मुझे मिल गये। लोग अब भी ठुके-से खड़े थे और मैं श्रीमतीजी के साथ भीतर प्लेटफॉर्म पर आ गया था।
यह है भाईजी, आदमी बनने का नया नुसखा कि बाबूजी भी ख़ुश, जनता भी खुश और हम भी ख़ुश-आम के आम, गुठली के दाम। भीड़ भी मान गयी कि कोई आदमी है और बाबूजी भी। कहो मानते हो या नहीं?"
“मान गये साहब, न मानने की इसमें गुंजायश कहाँ है, पर..."
“पर-वर इसमें कुछ नहीं, बस पर इतना ही है कि इस नुसखे को अदल-बदलकर पिया-पिलाया जाता है। यह हकीम पन्नालाल का बनफ्शा नहीं कि हमेशा उसमें बताशे ही डाले जाएँ, इसमें कभी बताशे पड़ते हैं तो कभी मिश्री और कभी गुड़।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
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- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
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- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
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- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
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- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
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- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में