कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
यों टुकुर-टुकुर क्या घूर रहे हो मुझे? लो मिश्री, बताशे और गुड़ का भेद समझाता हूँ तुम्हें। उस दिन प्रदर्शनी देखने जा रहे थे। स्टेशन आये तो टिकिट-घर पर भीड़। सोमवती वाली भीड़ नहीं, समझदार भीड़-क्यू में खड़ी, पर मुसीबत यह कि क्यू इतना लम्बा कि उसमें खड़े हों, तो हमारा नम्बर चालीसवाँ। हम सीधे खिड़की के पास पहुंचे और ऊँची आवाज़ से क्यू वालों से कहा, भाइयो, मैं मजबूरी में आपका नम्बर ले रहा हूँ। ऐसा करना मेरा हक़ नहीं है। यह आपकी मेहरबानी है। आपका समय कुछ मुझसे कम क़ीमती नहीं है। वे पसीज जाते हैं और मैं बेनम्बर ही टिकिट ले, मुसकराता हुआ चला आता हूँ। इस नुसखे का मोल यह नहीं है कि टिकिट मुझे पहले मिल गया, पर यह है कि उन्हें बेवकूफ़ बनाने पर भी वे मुझे एक आदमी मान लेते हैं-जी हाँ, एक आदमी।"
“आपके यह टिकिट ख़रीदने के नुसखे तो सचमुच हकीम पन्नालाल के नुसख़ों से भी ज़्यादा रामबाण हैं, पर...।''
“फिर वही पर, पर-वर इसमें कुछ नहीं, सिर्फ़ पर इतना है कि ये नुसखे टिकिट खरीदने के नहीं, आदमी बनने के हैं। यह बहुत बारीक भेद की बात है। राजा भोज का समय होता तो इस भेद की बात पर सोने की सैकड़ों मोहरें बरस पड़तीं, पर लो, तुम्हें बिना दक्षिणा के ही यह भेद बता रहा हूँ। बात यह है कि हर आदमी दूसरे आदमी को अपने से हीन समझता है। अब आवश्यकता यह है कि हमारी बात और काम ऐसे हों कि वह हमें श्रेष्ठ माने। इसका नाम है आदमी बनना, तो अवसर टिकिट खरीदने का हो या किसी और बात का, ख़ास बात है आदमी बनना, अपनी श्रेष्ठता का सिक्का दूसरे के दिल पर बैठाना। बस, इतना यहीं और समझ लो कि श्रेष्ठता का यह सिक्का कभी तो बैठता है चरित्र की ऊँचाई से और कभी उपयोगिता से। कहो, है न गहरे भेद की बात?''
“हाँ, बात तो वाक़ई गहरे भेद की है, पर हमारी समझ में यह भेद अभी बैठा नहीं है। तम एक-दो अनभव और सनाओ तो काम चले।"
“अनुभव? अनुभव एक-दो नहीं, एक सौ सुनो, अनुभव भी एक से एक और एक सौ एक के। अपनी ही बात कहे जाना ठीक नहीं है, इसलिए आप-बीती के बाद जगबीती का भी एक नमूना लो-
ठाकुर शीशमसिंह को तो तुम जानते हो? हाँ, हाँ, वे ही नगलीकलाँ वाले। क्या राय है तुम्हारी उनके बारे में? लो, अपने प्रश्न का उत्तर भी मैं ही दिये देता हूँ कि बहुत अच्छे आदमी हैं और यह तम्हारी-मेरी ही राय नहीं, सारे इलाक़े की राय है। अब मैं पूछता हूँ तुमसे कि क्या उनके चरित्र में कोई ऐसी ऊँचाई है कि सारी दुनिया उनका मान करे, उन्हें आदमी माने? आपका जवाब है नहीं और यही जवाब है मेरा भी तो बस यह सब आदमी बनने के नुसखों का ही असर है। आपको याद होगा हकीम पन्नालाल बहुत साफ़-सुथरे काग़ज़ पर नुसखे लिखा करते थे, ठाकुर शीशमसिंह भी बहुत सफ़ाई से नुसखे लिखते हैं, पर ख़ास बात यह है कि न उसमें होता है चिरायता, न गिलोय, न सौंफ़ न अजवायन; उसमें होता है नमस्ते और भवदीय।"
"नुसखे में नमस्ते और भवदीय होता है?"
“हाँ जी, नुसखे में नमस्ते और भवदीय होता है और लो, उलझने की कोई बात नहीं; बात है सिर्फ यह कि 1942 में एक फ़रार क्रान्तिकारी छिपकर उनके यहाँ रहता था। अब वह पहुँच गया एक ऊँचे पद पर और इनका लिहाज़ करता है। उसके कारण इनकी और भी चार बड़े आदमियों से जान-पहचान हो गयी है। अब ठाकुर साहब इन्हीं लोगों के नाम सिफ़ारिशी ख़त लिखा करते हैं। किसी का मुक़दमा हो या परमिट, पासपोर्ट हो या मेम्बरी, बेटे की नौकरी हो या बेटी का रिश्ता, ठाकुर साहब का ख़त ले जाइए-वे ख़त देने से कभी इनकार न करेंगे। बस ठाकुर साहब सबके लिए आदमी बने हुए हैं।"
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में