कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
मान लीजिए आप किसी मसले से परेशान हैं और चचा आ गये। आपने उनसे कहा, “चचा, मेरा तो दिल बुझा जा रहा है, आख़िर क्या होगा इस मामले में।" तो वे पहले ज़रा मुसकराएँगे और तब कहेंगे-“अरे भाई, इसमें होना-हवाना क्या है, दिल का दीया बुझा जा रहा है तो उठकर उसमें तेल डालो, यानी कुछ पियो !"
“क्या पिएँ चचा?" आप पूछ बैठें तो वे फिर मुसकराएँगे और तब इस तरह कहेंगे जैसे कोई बड़ी गम्भीर बात कह रहे हैं, “अरे भाई, पिएँ क्या, वही तीन तोले अफ़ीम और तीन छटाँक तेल; बस मामला साफ़ !"
इसके बाद बच्चों की तरह मुँह बनाकर खिसियाएँगे और फ़रमाएँगे, "वाह साहब, इस दुनिया में इतनी पीने की चीजें हैं कि सिर्फ उर्दू में उनके नाम लिख दूँ तो मेरा अख़बार भर जाए-क्या समझे जनाब, पूरे चार पेज और आप पूछ रहे हैं कि क्या पिएँ चचा? अरे साहब, तन्दुरुस्ती के लिए पीने को गंगा-जमुना के इलाक़े में दूध और मारवाड़ में प्यास बुझाने को पानी मिले या न मिले, मायूसी दूर करने की दवा का इन्तज़ाम हुकूमत ने हर जगह कर रखा है और वह अगर कहीं चूक भी गयी है तो हमारे पण्डे-पुजारियों ने अपने-अपने मन्दिरों में कुण्डी-सोटे का प्रबन्ध करके उस कमी को पूरा कर दिया है। इस पर भी आपकी आँखें नहीं खुलतीं, तो भला हो इन कम्पनीवालों का। बेचारों ने छोटी-छोटी गलियों की दुकानों तक पर चाय की पुड़ियें भेज दी हैं। एक प्याला गले से उतारो कि ख़ुमार आए और बस मायूसी वन टू थ्री। अब बैठो किसी हँसमुख के साथ और दो-चार मिनिट जोड़ो गप्पें, बस दिल और दिमाग ताज़ा। अब आप चाहे कुछ लिखिए-पढ़िए, बाज़ार से घर का सामान लाइए या जिस मसले में उलझे हैं, उसे सुलझाने को निकल पड़िए। बाहर-भीतर की इस ताज़गी में आप उलटे-सीधे चार हाथ मारेंगे, मामला सुलझ जाएगा और होना-हवाना क्या है?"
यह है चचा विमटो का वह नुसख़ा, जो मायूसी और परेशानी पर कभी बेकार नहीं जाता। मैं बरसों यह समझता रहा कि चचा हँस-हँसाकर आदमी का दिल बहला देते हैं, पर उस दिन मैंने जाना कि चचा का नुसख़ा, तो अपने में ज़िन्दगी की एक फ़िलासफ़ी लिये हुए है।
“ओः हो, तो आपको अपने चचा के इस नुसखे में ज़िन्दगी की एक फ़िलासफ़ी भी दिखाई दे गयी? सच यह है भाई साहब, कि हर लेखक कुछ-न-कुछ पागल होता है और इस समय तो आप सचमुच आगरे की एक ख़ास बिल्डिंग के चारों तरफ़ ही घूम रहे हैं।''
जी हाँ, आगरे की बिल्डिंग के बाहर ही नहीं, मुमकिन है मैं उसके भीतर ही घूम रहा होऊँ, पर मेरा विश्वास है कि पूरी बात सुनकर आप भी यह मान लेंगे कि हमारे चचा एक ज़िन्दादिल इनसान ही नहीं, पूरे दार्शनिक-फ़िलासफ़र हैं और दार्शनिक भी जीवन के; यानी कोरे सिद्धान्ती नहीं, एक अमली आदमी।
'अच्छा, तो सुनाइए फिर अपने चचा की जीवन-फ़िलासफ़ी हमें भी ज़रा। मुमकिन है उसमें से कुछ हमारे हाथ पल्ले भी पड़ जाए; वैसे तो आप जानते ही हैं कि हम अपने मुल्क के एक मशहूर कूड़मग्ज़ आदमी हैं।"
तो लीजिए, सुनिए, चचा की जीवन-फ़िलासफ़ी। बात यह हई कि हमारे दफ़्तर के बड़े साहब हमसे नाराज़ हो गये और उन्होंने हमसे ऐसा कसकर जवाब तलब किया कि सबने मान लिया कि अब हमारा पत्ता कटा। अच्छी तनख्वाह, शानदार काम, छूटा सो छूटा, फिर कहाँ मिलता है? हम परेशान हो गये और दिमाग की हालत वही हो गयी कि यों तो सारे दिन सोच-ही-सोच, पर कोई पूछे कि भई, क्या सोच रहे हो तो हम इस तरह चौंके कि जैसे दूसरे की थैली में हाथ दिये पकड़े गये !
क़िस्मत की बात कि कहीं से घूमते-घामते आ निकले चचा और हमें देखा जो गुमसुम तो दूर से ही तनतनाकर बोले-“कहो साहबजादे, किसकी गली में पिट आये आज?"
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
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- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
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- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
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- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
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- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में