कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
मैंने समाधान की दिशा में झाँका ही था कि मुझे याद आ गये मेरे मित्र शर्मा जी। हज़ामत तो वे बनाते हैं तीन ही मिनट में, पर मूँछें ठीक करते हैं पूरे छह मिनट में। बात यह है कि नाक के ठीक नीचे उनकी घनी काली मूंछों में कोई दस-पन्द्रह सफ़ेद बाल उग आये हैं। वे उन्हें अपनी छोटी-सी कैची से कतर-मंतर करते रहते हैं और मुसीबत यह है कि वे यह तो चाहते हैं कि सफ़ेद बाल किसी को दिखाई न दें, पर यह भी चाहते हैं कि किसी को यह भी दिखाई न दे कि उन्हें यहाँ से हटाया गया है। गरज यह कि वे उनका अपने साथ कोई सम्बन्ध होना अपनी हेठी मानते हैं।
फिर वही प्रश्न कि आखिर सफ़ेद बाल से चिढ़ क्यों? प्रश्न मेरी चेतना में चक्कर काट रहा है और प्रश्न क्या चक्कर काट रहा है, मैं ही चक्कर काट रहा हूँ। चक्कर का अर्थ है घूमना। घूमना यानी अब यहाँ, तो तब वहाँ, लो पहुँच गया मैं वासुदेव की माँ के घर। उम्र चालीस साल की है, सब तरह से सुखी, स्वयं सुहागन है, आगे बेटा-बहू हैं। उस दिन मैं वासुदेव को बुलाने गया, तो देखा कि माँ धूप में बैठी अपनी बहू से सफ़ेद बाल चुंटवा रही है। ओह, इसे भी सफ़ेद बाल से चिढ़ है।
मन में आया, ठीक तो है यह चिढ़ कि सारे बाल तो काले, बीच में दो-चार सफ़ेद। ठीक ऐसा लगता है कि सफ़ेद कुरते में किसी ने लाल टुक्की लगा दी हो। सफ़ेद बाल के प्रति हमारी यह चिढ़ हमारे सौन्दर्य-बोध का चिह्न है। मन को सन्तोष हुआ कि मैंने जो अपने चमकते मस्तक से यह सफ़ेद बाल फुरती के साथ कैची से बुरका, तो यह इस बात का एक प्रमाण ही हुआ कि मुझमें सौन्दर्य-बोध है।
आदमी भी कितना चतुर है कि वह औरों को तो घिस्सा-पट्टी देता ही रहता है, अपने को भी नहीं छोड़ता। मैंने भी यों अपने को सौन्दर्य-बोध का पण्डित मान लिया, पर यह मानना टिका नहीं; क्योंकि तभी मुझे याद आ गये मेरे मित्र चौधरी साहब ! मशहूर आदमी हैं। समाज में नाम है, अण्टी में दाम है। उम्र ढल चली है, पर देह में बल है, चेहरे पर रौनक़ भी। बाल उनके काले हैं, यही मैं जानता था, पर उस दिन लखनऊ जाने की बात चली तो बोले, “मेरे लिए ख़िज़ाब की एक शीशी लेते आना अमीनाबाद पार्क में मन्दिर से आगे जो बड़ी-सी दुकान है, उस पर मिलेगी। ये लो पाँच रुपये।"
मैंने पूछा, “क्या कीजिएगा ख़िज़ाब मँगाकर?''
बोले, “नज़ले के मारे सिर सफ़ेद हो गया है।"
सोचना पड़ा कि सफ़ेद बाल से हमारी चिढ़ हमारे सौन्दर्य-बोध का चिह्न तो नहीं है; क्योंकि जिनके दस-बीस बाल सफ़ेद हैं, वे ही उन्हें नहीं नोचते; जिनका सारा सिर सफ़ेद है, वे भी उन्हें रँगते हैं।
सफ़ेद बाल से यह चिढ़ किस सीमा तक है, यह मैंने मियाँ नूरू से समझा। नरू हमारे ही महल्ले में रहता है, रात में मण्डी में चौकीदारी करता है। उस दिन दोपहर को अपने घर के बाहर बैठा था। मैं उधर से निकला, तो देखा कि उसके सारे सिर पर कोई दवा लगी है और ऊपर पट्टी बँधी हुई है।
देखा तो धक-से रह गया। मन में आया, रात मण्डी में कहीं चोरों से मुठभेड़ हुई है और सिर फूटा है। सहानुभूति से पूछा, “क्यों भाई, कहाँ चोट खा गये?"
“चोट !'' नूरू मुसकराया, “बाबूजी, यह तो मैंने मेहँदी लगा रखी है।"
“सिर में मेहँदी क्यों?" उत्तर में उसने बताया, "ख़िज़ाब की मामूली शीशी भी डेढ़ रुपये में आती है। कहाँ से लाएँ बाबूजी, इसलिए बाग से मेहँदी चूंट लाये और पीसकर लगा ली।"
“पर नूरू भैया, इससे बाल काले तो नहीं होते?” मैंने कहा, तो बोला, “अजी, काले नहीं होते, तो क्या हुआ, सफ़ेद दाग भी तो नहीं रहते।"
मतलब यह कि कुछ भी हो, बाल सफ़ेद न रहें-भले ही वे लाल हो जाएँ।
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