कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
लहर में से लहर उठती है, तो बातों में से बात। नूरू की बात में-से नयी बात उठी-बालों की सफ़ेदी से आदमी को चिढ़ है, चिढ़ गहरी भी है, पर है क्यों यह चिढ़?
जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। इस प्रश्न का उत्तर अतीत में एक कवि दे गये हैं। वे थे केशवदास। बड़े रसिया थे, पर बेचारों के बाल सफ़ेद हो गये, तो रस-भंग होने लगा। एक दिन दुःखी होकर अपनी भाषा में बोले,
"केशव, केशन अस करी, जस अरिहूँ न कराहिं।
चन्द्रवदनि मृगलोचनी, बाबा कहि-कहि जाहिं॥"
देह बूढ़ी हो चली है, पर मन अभी तरुण है। तरुणाई रंगरेलियों का त्योहार है. पर बाबा कहने का अर्थ है कि द्वार पर ही उनका प्रवेश निषेध हो जाए। तो काला केश जीवन के चढ़ाव का चिह्न है और सफ़ेद बाल ढलाव का। चढ़ाव में चाव है, ढलाव में शान्ति है। चाव में प्राप्ति की कामना है, शान्ति में प्राप्त का सन्तोष है। कामना की शक्ति है आकर्षण, सन्तोष की शक्ति है इच्छा-हीनता।
काला केश यौवन का चिह्न है, सफ़ेद बाल बुढ़ापे का। यौवन की वृत्ति है पाओ, और पाओ, अभी और। बुढ़ापे की वृत्ति है ठहरो और पाये हुए को परखो। यौवन की वृत्ति का स्वरूप है-पिओ, पिओ, पिये जाओ; छको मत। बुढ़ापे की वृत्ति का स्वरूप है-बहुत पी चुके, अब ठहरो।
यौवन रक्त है, बुढ़ापा ओज है। यौवन समेटना है, बुढ़ापा सहेजना है। यौवन यात्रा है, बुढ़ापा पड़ाव है।
काला वर्ण है-एकांगिकता का चिह्न, सफ़ेद वर्ण है-सर्वांगीणता का चिह्न; क्योंकि काला एक रंग है और सफ़ेद में सब रंगों का समन्वय है।
सफ़ेद बाल कहता है कि बुढ़ापा आ गया है, यौवन में जो कुछ समेटा है, उसे सहेज लो।
समेट में सामग्री की बहुलता है, सहेज में उसका वर्गीकरण है और यह भी कि जो फालतू है, बोझ है, उसे हम फेंक दें।
हमारा मोह यहाँ चौंकता है, बिदकता है-नहीं, अभी नहीं, अभी तो समेट का, संग्रह का, जो मिले, सो लेने का ही समय है।
सफ़ेद बाल के प्रति हमारे मन में जो चिढ़ है, वह इसी मोह की ध्वनि है और इस ध्वनि की प्रतिध्वनि है कि हम अभी संघर्ष चाहते हैं, सुख नहीं। यौवन में संघर्ष है, उत्तेजना है, बुढ़ापे में शान्ति है, सुख है। संघर्ष में जीवन का रस है, सुख में जीवन का फल है। रस काव्य है, सुख अध्यात्म है।
हम रस में इतने लीन हैं कि फल की ओर नहीं देख पाते-उस राही की तरह, जो चलते-चलते राह की चीज़ों को देखने में इतना मशगूल है कि मंज़िल को पार करके भी सोचता है, काश, अभी चला ही चलता।
ओह, इस चलाचली में मैं कहाँ चला गया-बात तो बस इतनी ही है कि मेरी चमकती चाँदपर जो थोड़े-से बाल बच गये हैं, उन्हीं में एक था सफ़ेद; जाने क्यों मुझे वह अच्छा नहीं लगा और अपनी छोटी कैची की एक ही लपलपी में मैंने उसे बुरक दिया !
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में