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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

बल-बहादुरी : एक चिन्तन


बल में पुरुषत्व का निवास है और सहृदयता में देवत्व का। बल के अभाव में परिलक्षित होता है क्लीवत्व का दयनीय दर्शन और सहृदयता की शून्यता में ताण्डव करती है, पापपुंज-प्रोज्वलित पैशाचिकता !

क्लीवत्व भय का पिता है और उसकी सहचरी है दीनता, पर पैशाचिकता की सखी है क्रूरता और वह अज्ञान के पुत्र अहंकार का पोषण करती है।

पुरुषत्व अभय का जनक है और देवत्व शान्ति का। अभय और शान्ति का यह सुन्दर सम्मिलन ही मानवता के विकास की पुण्य-भूमि है।

रावण भी बली था और राम भी; कृष्ण में भी बल का अधिष्ठान था और कंस में भी; पर एक की आज जयन्ती मनायी जाती है और दूसरे का स्मरण हमारे हृदयों में घृणा के उद्रेक का कारण होता है।

बात क्या है?

एक ने अपने बल का उपयोग किया जनता के अधिकारों की रक्षा में और दूसरे ने उनके अपहरण में; एक के बल का पथ-प्रदर्शक था प्रेम और दूसरे का स्वार्थ; बस दोनों का यही अन्तर है ! इसका अर्थ यह हुआ कि सबल के बल का सदुपयोग ही उसके साफल्य की एकमात्र कुंजी है।

बल एक है, पर उपयोग के साँचे में ढलकर हम उसे दो रूपों में देखते हैं। आत्मा का संस्पर्श उसे वीरता के पवित्र एवं स्पृहणीय नाम से उद्घोषित करता है और देह का क्रूरता के जघन्य एवं घृणित नाम से।

दूसरे शब्दों में विवेक का साहचर्य उसे स्वर्ग की सीमा में ले जाता है और अविवेक का नरक की।

सामान्यतः बल अन्धा है और उसकी गति पथ-प्रदर्शक के अधीन है।

राष्ट्र एवं जातियों के गौरव की स्थिति पूर्णतः कोकिल के शिशु जैसी है। उसका जन्म होता है, शक्ति की कल्याणमयी गोद में, पर वह पलता है प्रेम के पवित्र पालने में। बल उसकी नसों में अभिमान एवं कर्मण्यता के रक्त का संचार करता है और प्रेम उसे त्याग का अमृत पिलाकर अमर करने का प्रयत्न। बल एवं प्रेम का यह सात्त्विक सहयोग ही राष्ट्रों के निर्माण की मूलशिला और इन दोनों का पारस्परिक विरोध ही विश्व के विशाल राष्ट्रों एवं जातियों के खंडहरों का सच्चा एवं हृदयवेधी इतिहास है।

बल आकर्षण का केन्द्र है। बल का उपयुक्त प्रदर्शन अपनों और बेगानों, सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है-सबल को सभी मुग्ध-दृष्टि से देखते हैं, प्रेम और श्रद्धा का स्नेहोपहार उसके चरणों में समर्पित कर सभी अपने को धन्य समझते हैं, पर वीर अपने प्रतिद्वन्द्वी वीर के एक प्रशंसा वाक्य को जनसाधारण के अतिशयोक्तिपूर्ण अनेक भाषणों से अधिक महत्त्व देता है। वास्तव में एक कवि ही दूसरे कवि की सच्ची प्रशंसा करने का अधिकारी है। और एक वीर ही दूसरे वीर का सच्चा सम्मान कर सकता है।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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