कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
बल-बहादुरी : एक चिन्तन
बल में पुरुषत्व का निवास है और सहृदयता में देवत्व का। बल के अभाव में परिलक्षित होता है क्लीवत्व का दयनीय दर्शन और सहृदयता की शून्यता में ताण्डव करती है, पापपुंज-प्रोज्वलित पैशाचिकता !
क्लीवत्व भय का पिता है और उसकी सहचरी है दीनता, पर पैशाचिकता की सखी है क्रूरता और वह अज्ञान के पुत्र अहंकार का पोषण करती है।
पुरुषत्व अभय का जनक है और देवत्व शान्ति का। अभय और शान्ति का यह सुन्दर सम्मिलन ही मानवता के विकास की पुण्य-भूमि है।
रावण भी बली था और राम भी; कृष्ण में भी बल का अधिष्ठान था और कंस में भी; पर एक की आज जयन्ती मनायी जाती है और दूसरे का स्मरण हमारे हृदयों में घृणा के उद्रेक का कारण होता है।
बात क्या है?
एक ने अपने बल का उपयोग किया जनता के अधिकारों की रक्षा में और दूसरे ने उनके अपहरण में; एक के बल का पथ-प्रदर्शक था प्रेम और दूसरे का स्वार्थ; बस दोनों का यही अन्तर है ! इसका अर्थ यह हुआ कि सबल के बल का सदुपयोग ही उसके साफल्य की एकमात्र कुंजी है।
बल एक है, पर उपयोग के साँचे में ढलकर हम उसे दो रूपों में देखते हैं। आत्मा का संस्पर्श उसे वीरता के पवित्र एवं स्पृहणीय नाम से उद्घोषित करता है और देह का क्रूरता के जघन्य एवं घृणित नाम से।
दूसरे शब्दों में विवेक का साहचर्य उसे स्वर्ग की सीमा में ले जाता है और अविवेक का नरक की।
सामान्यतः बल अन्धा है और उसकी गति पथ-प्रदर्शक के अधीन है।
राष्ट्र एवं जातियों के गौरव की स्थिति पूर्णतः कोकिल के शिशु जैसी है। उसका जन्म होता है, शक्ति की कल्याणमयी गोद में, पर वह पलता है प्रेम के पवित्र पालने में। बल उसकी नसों में अभिमान एवं कर्मण्यता के रक्त का संचार करता है और प्रेम उसे त्याग का अमृत पिलाकर अमर करने का प्रयत्न। बल एवं प्रेम का यह सात्त्विक सहयोग ही राष्ट्रों के निर्माण की मूलशिला और इन दोनों का पारस्परिक विरोध ही विश्व के विशाल राष्ट्रों एवं जातियों के खंडहरों का सच्चा एवं हृदयवेधी इतिहास है।
बल आकर्षण का केन्द्र है। बल का उपयुक्त प्रदर्शन अपनों और बेगानों, सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है-सबल को सभी मुग्ध-दृष्टि से देखते हैं, प्रेम और श्रद्धा का स्नेहोपहार उसके चरणों में समर्पित कर सभी अपने को धन्य समझते हैं, पर वीर अपने प्रतिद्वन्द्वी वीर के एक प्रशंसा वाक्य को जनसाधारण के अतिशयोक्तिपूर्ण अनेक भाषणों से अधिक महत्त्व देता है। वास्तव में एक कवि ही दूसरे कवि की सच्ची प्रशंसा करने का अधिकारी है। और एक वीर ही दूसरे वीर का सच्चा सम्मान कर सकता है।
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- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
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- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
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