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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


भक्त भगवान् की पूजा में लीन हो जाता है, अपूर्व आनन्द उसे मिलता है, पर एक पुजारीजी हैं। दोपहर को वे ताश जमाते हैं और शाम को जब भगवान की पूजा का तक़ाज़ा उन पर आता है तो कभी-कभी कहा करते हैं, "उठो भाई, पहले पूजा का पाप काट आएँ !"

मैं भी ऊपर चढ़ रहा हूँ, पर चढ़ाई का पाप ही तो काट रहा हूँ ! फिर आनन्द कैसे मिले?

पगडण्डी चढ़ा चला आ रहा था कि ध्यान आ गया इस पगडण्डी में कितने मोड हैं? कितने क्या, मोड़-ही-मोड़ हैं; जैसे यह राह न होकर कोई चक्कर हो !

तभी जैसे भीतर किसी ने कहा, जीवन में भी तो मोड़ हैं इसी तरह; और अब जैसे जीवन और पथ दोनों मेरे सामने आ गये। मैं सोचता रहा, पथ में भी मोड़ हैं, जीवन में भी मोड़ हैं।

“पर क्यों हैं ये मोड़?” जिज्ञासा ने पूछा और विवेक ने उत्तर दिया, “पथ में मोड़ न हों तो पथिक अपनी मंज़िल तक कैसे पहुंचे और जीवन में मोड़ न हों तो मानव अपना लक्ष्य कैसे पाए, पगले !”

तब ठीक है-मैंने सोचा-मोड़ पथ की भी शक्ति है और जीवन की भी; पर शक्ति जहाँ शक्ति है, वहीं एक ख़तरा भी है कि सदुपयोग हो तो शक्ति-निर्माण का साधन है और दुरुपयोग हो तो विनाश का मोरचा।

जीवन या पथ के मोड़ पर आते ही जहाँ आगे बढ़ने की प्रवृत्ति पनपती है, वहाँ भटक जाने की सम्भावना भी तो ! यहाँ दिशाबोध आवश्यक है और यह दिशाबोध ही शक्ति का सदुपयोग है।

चढ़ते ही चढ़ते किसी से सुना, सामने की पहाड़ियों में एक साधु रहता है और सर्दियों में, जब चारों ओर सूनापन छा जाता है तो कभी-कभी वह दिखाई देता है।

जीवन की यह कैसी स्थिति है कि न पास कोई अपना आदमी, न सुख-सुविधा का कोई साधन, बस पहाड़ की सूनी कन्दरा और उसमें निवास करता एक मनुष्य, जिसके पास अपनी एक लँगोटी भी नहीं-एकदम अकिंचन !

अकिंचन, तो क्या दयनीय? मेरी आँखों में घूम रहे हैं, वे दीन-भिखारी, जिनके पास कुछ भी नहीं होता-सचमुच दयनीय।

तो क्या साधु और भिखारी, दोनों एक ही चीज़ हैं? लगता तो यही है कि एक ही चीज़ हैं-उसके पास भी कुछ नहीं और इसके पास भी कुछ नहीं, पर देख रहा हूँ अन्तर्वासी इसे ले नहीं पा रहा और उसके विद्रोह की वाणी सुन रहा हूँ-ना, ये दोनों एक नहीं हैं; एक के पास कुछ नहीं है और वह टुकड़ों के लिए दर-दर भटकता है, पर एक के पास कुछ नहीं है, तब भी वह स्वर्ग का अधीश्वर है।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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