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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


डुबकी खाते-खाते मैं उभर आया हूँ-हमारी महान् संस्कृति का यह कैसा चमत्कार है कि मनुष्य की दीनता की चरम सीमा है अकिंचनता और उसके उत्कर्ष की चरम सीमा है अकिंचनता। अकिंचनता की ही छाया में जी रहे हैं वे लाखों. जो मानव होकर भी नाली के कीडों की स्थिति में हैं और अकिंचनता की छाया में ही पनपे हैं-महावीर, बुद्ध और गाँधी !

सोच रहा हूँ, यह दीनता दूर होनी है और यह उत्कर्ष पनपना है और चढ़ा चला आ रहा हूँ।

पर्वतमाला से मैंने कहा, “तुम कितनी उदार हो कि मेरी जाति के हज़ारों लोगों को अपनी गोद में लिये रहती हो? क्या इसमें कष्ट नहीं होता?"

पर्वतमाला ने कहा, “कष्ट की इसमें क्या बात ! तुम देखते नहीं, आकाशदेव मुझे कितने प्यार से अपनी गोद में लिये हुए है?"

मैंने उन्नत आकाश की ओर देखा। वह विश्वब्रह्माण्ड को अपनी गोद में लिये स्पर्श-सुख की कोमल अनुभूति में लीन था।

सन्ध्या का समय, सामने के ऊँचे पर्वत-शिखर पर काले बादल का एक टुकड़ा और उसके किनारे डूबते सूर्य की किरणों के आलोक में स्वर्णाभा; प्रकृति की कारीगरी का यह प्रदर्शन, यह अद्भुत प्रदर्शन !

पर्वत-सुन्दरी गोटे का चूनर ओढ़े किसी की प्रतीक्षा में है या ताल के सम पर छम से ठुमककर नृत्य की मुद्रा में स्थिर हो गयी है?

बादल का टुकड़ा नीचा हो गया है और वह स्वर्ण-रेखा ठीक शिखर पर आ लगी है। सन्ध्या के झुटपुटे में हरित श्यामल शिखर और शुद्ध स्वर्ण की यह मोटी रेखा। वातावरण शान्त, आँखों में स्वर्ण-प्रकाश और मन लीन।

क्या पुराण-वर्णित शिवताण्डव की यही प्रस्तावना है?

और यह लौट रहा हूँ मैं अपने घर-नगर। बस में एक यात्री को चक्कर आ गया तो किसी अनुभवी ने कहा, “आप दूर देखिए, पास देखने से ज़्यादा चक्कर आते हैं।"

एक सरदारजी को ज़ोरों से उबकाइयाँ आयीं तो दूसरे अनुभवी ने कहा, “आप ऊपर देखिए, नीचे देखने से ज़्यादा चक्कर आते हैं।"

अनुभवों को मिलाकर सोचा-ठीक है, जीवन की यात्रा में जो लोग नीचे की ओर देखते हैं-विचारों के नीचे धरातल पर आँख रखते हैं और जो लोग पास ही देखते हैं, संकीर्ण-दृष्टि का शिकार हो जाते हैं, उन्हें ऐसे चक्कर आते हैं कि वे यात्रा का कुछ भी आनन्द नहीं ले पाते।

और अब मैं फिर अपने नगर में था-इस युग में यात्रा कितनी सुगम हो गयी है, पर क्या सुगमता ऐसी चीज़ है कि हम उसे हर बात में चाहें और यह भूल जाएँ कि पथ की दुर्गमता ही मंज़िल के महत्त्व का मापदण्ड है?

* * *

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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