लोगों की राय

कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू

बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

335 पाठक हैं

सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


असल में सिनेमा देखना सीखिए पाँच आने वालों से। ऐसे लीन रहते हैं फ़िल्म में कि क्या कहने। किसी की शादी परदे पर हुई, तो ऐसे खुश हैं कि बस जैसे वे ही दूलहे बन रहे हों। किसी प्रेमिका ने अपने प्रेमी को आधी रात बाग में बुलाया, तो जैसे उन्हीं को निमन्त्रण मिला है। हर मौक़े पर फिट रिमार्क और चुस्त चोचलेबाज़ी। क्या ख़ाक बीड़ी पीकर आलोचना लिखेंगे बेचारे सम्पादकजी; हूँ! एक दिन इस दरज़े की आलोचना को शार्ट-हैण्ड से लिख लें, तो सम्पादकजी धन्य हो जाएँ! ये लोग थके हुए आते हैं और ताज़े होकर लौटते हैं, जब कि गद्दों पर बैठने वाले सिनेमा हाल के बरामदे में अंगड़ाइयाँ लेकर अपनी मोटरों या ताँगों की सीटों पर आ गिरते हैं। सच यह है भाई साहब, ज़िन्दगी ज़िन्दादिली का नाम है।

यह दुनिया भी चोंचों का मुरब्बा है। चोंचों का मुरब्बा? हाँ जी, एकदम चोंचों का मुरब्बा। जो लोग दिन-भर गदिदयों पर बैठे रहे, बदहाज़मा जिनका ऐसा साथी कि मरियम तो मरियम पै टरियम नहीं, सिनेमा में बैठे-बैठे भी जिनकी पिण्डलियाँ फूल जाती हैं, वे मोटरों में क्यों बैठते हैं? रात का सुहावना समय और परिवार का साथ, टहलते-टहलते घर आएँ, तो क्या कहने! और जो कहीं चाँदनी रात हो, तो वाह, वाह! चाँदनी रात क्या है, धरती का स्वर्ग है।

सुना है अमेरिका में एक करोड़पति का लड़का तीन-चार साल की उम्र में अन्धा हो गया। यह तब की बात है, जब वहाँ आँखों का ऑपरेशन नहीं होता था। छत्तीस-सैंतीस वर्ष वह अन्धा ही रहा, अन्धापन प्रकृति का कितना बड़ा दण्ड है! पिछली लड़ाई में जो नये-नये आविष्कार हुए, उनमें कई ओषधियाँ भी थीं और कई नये ऑपरेशन भी! उस लड़के की क़िस्मत जागी और वह ठीक हो गया। लड़का क्या अब तो वह चालीस साल का अधेड़ था। ओह, उसकी खुशी! बादल को देखकर मोर भी क्या नाचा होगा, जो वह नाचा। सारी दुनिया उसे अजीब लगी। हर चीज़ को वह एक खास कौतुक से देखता, घण्टों देखता, बार-बार देखता, देखता ही रहता। उसे आश्चर्य होता कि इस इतनी सुन्दर दुनिया को देखे बिना ये अन्धे कैसे जीवित रहते हैं?

एक दिन अचानक उसके मन में आया कि वह सारे संसार के सुन्दर स्थानों की सैर करे। रुपया पास था, काम-धन्धे की चिन्ता न थी, बस निकल पड़ा दुनिया की सैर को! यह देख, वह देख। घूमता-फिरता वह हमारे देश में भी आया। अमेरिका में पहुँचकर जब पत्रकारों ने उससे पूछा, तो उसने कहा, दुनिया की सबसे सुन्दर चीज़ हिन्दुस्तान में पूनों की चाँदनी रात है। उस दिन ऐसा मालूम होता है कि लोहे की काली रात अचानक चाँदी की हो गयी है।

वाह, क्या कवियों-जैसी बात कही है उस धनी अमेरिकन ने। मेरी भी यही राय है कि चाँदनी रात धरती का स्वर्ग है, पर भाई साहब, हमारे देश में कुछ लोग हैं, जो चाँदी के तगार घोलने में परेशान हैं और कुछ आसमान के स्वर्ग का पासपोर्ट बनवाने में। यह अपने सामने फैली चाँदी और अपनी मुट्ठी का स्वर्ग उन्हें दिखाई ही नहीं देता!

आदमी के दिमाग में यह क्या खुराफ़ात भरी है कि वह कांचन को छोड़कर काँच की ओर लपकता है। एक स्वामीजी एक दिन अपने किसी चेले को एक कहानी सुनाते जा रहे थे कि एक गरीब आदमी ने किसी साधु महात्मा की बड़ी सेवा की। महात्माजी प्रसन्न हो गये और बोले, लो, यह पारस पथरी तुम्हें दिये जा रहा हूँ। परसों आकर ले लूँगा। तब-तक जितना सोना तुम चाहो बना लो। परसों जब मैं आऊँगा तो ठहरूँगा नहीं। फ़ौरन पारस पथरी लेकर चला जाऊँगा। गरीब आदमी बड़ा खुश हुआ, पर उसने सोचा कि अब तो मेरा भाग्य बदल ही गया, अब क्या। आज तो इस खुशी में मैं खूब सोऊँगा और कल लोहा खरीदकर उसका सोना बनाऊँगा। वह उस दिन खूब सोया। दूसरे दिन सुबह उठा और लोहा खरीदने चला, पर रास्ते में एक मदारी का खेल हो रहा था, वह उसे देखने में लग गया और दोपहरी चढ़ आयी। रईसी बेचारे के दिमाग में आ ही गयी थी। सोचा, चलो, अब खाना खाकर सोएँगे। शाम को लोहा ख़रीदेंगे। ख़रीदा और पारस-पथरी फेरी; काम ही कितना है। शाम को लोहा खरीदने गये, तो भाव न बना। उनका कहना था कि जब हम सौ-पचास मन इकट्ठा खरीद रहे हैं, तो दुकानदार को हमारा लोहा हमारे घर पहुँचा देना चाहिए, पर दुकानदार इस पर तैयार न हुआ। ग्राहक के दिमाग मेंनयी रईसी के सपनों की गरमी, वह भी न झुका और चला गया। उसने सोचा, महात्माजी कल सुबह इतनी जल्दी कहाँ आ जाएँगे? मैं जल्दी उठकर दूसरी दुकान से लोहा खरीद लूँगा, पर दूसरे दिन वह सो ही रहा था कि महात्माजी आ पहुँचे। वह बहुत रोया-घिघियाया पर वे न माने। इसके लिए भी तैयार न हुए कि वह गरीब अपने किवाड़ों की कुण्डी-साँकल का ही सोना बना ले। महात्माजी अपनी पारस-पथरी लेकर चलते बने। बेचारा सिर पीटता रह गया, पर यह क़सूर किसका था?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book