कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
लड़के बोले, “हम इसे क्या करेंगे ले जाकर?''
“खा-पका लेना और क्या करोगे?''
“जी नहीं, चील का गोश्त खाने के लायक नहीं होता !"
“फिर तुमने इसे मारा ही क्यों?''
“अजी, हम तो हलाल करना सीख रहे थे !"
अब बताइए, एक की राय में चील निशाना सीखने का सिर्फ काला सितारा है, तो दूसरे की राय में हलाल सीखने की कुंजी ही ! है न हरेक की अपनी राय? यह अपनी राय का मसला इतनी बड़ी पहेली है कि सुलझाये नहीं सुलझती। इस दुनिया में लाखों आदमियों का यही पेशा है कि वे यह बताएँ कि इस मामले पर अमुक महापुरुष की क्या राय थी? इससे भी मज़ेदार यह कि यदि इस मसले पर महापुरुष ने कभी कोई राय नहीं दी, तो यदि वे राय देते, तो क्या देते? समाज में इन्हें धर्मगुरु कहा जाता है, इनका मान किया जाता है। अच्छा छोड़िए धर्मगुरुओं की बात; इन वकीलों को देखिए। दोनों तरफ़ के दो वकील, पर क़ानून एक। दोनों अपना-अपना अर्थ बताते हैं। अब जिसका भी अदालत मान ले, यानी क़ानून न हुआ, लाटरी हुई कि जिसकी खुल गयी, खुल गयी !
ओह, मैं भी इधर-उधर की बातों में ऐसी उलझी कि अपनी बात ही भल गयी। मैं कह रही थी कि मेरा नाम पार्लामेण्ट स्ट्रीट है और भविष्य का रूप मैं पहले से ही जानती थी। बात यह है कि जब सिर पर आ पड़े, तब तो सभी समझ लेते हैं, पर खूबी तो उसकी है, जो दूर से ताड़ ले। मैं यह न ताड़ पाती, तो आज मेरा भी तख्ता उलटा जाता। मेरा यह पाठ संसार पढ़ ले, तो पैंसठ फ़ीसदी दुःख छू-मन्तर हो जाएँ। मैं आज भी लोगों की बातें सुनती रहती हूँ। संसार बदल रहा है, पर सामाजिक और धार्मिक संस्कारों के सम्बन्ध में लोग अपने विश्वासों को नहीं बदलना चाहते। अब कोई पछे इनसे कि 20वीं में 16वीं सदी कैसे टिक सकती है? बदलेंगे बेचारे, रो-झोंककर, पर बात उनकी है, जो भविष्य को वर्तमान में देख लें और तैयार हो जाएँ उसके लिए। मेरी तो यही बात है, जिसे मैं अपने देश के हरेक आदमी से कहना चाहती हूँ और इसीलिए मैं हर आते-जाते से बोलती रहती हूँ।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में