कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
याद आ रहा है संस्कृत का एक श्लोक, जिसमें सुख की कुंजी बतायी गयी है-विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्, पात्रत्वाद् धनमाप्नोति धनाद् धर्मं ततः सुखम्। भाव यह है कि विद्या से मनुष्य में विनय आती है, विनय से पात्रता-पाने की योग्यता-और वह पात्रता से पाता है धन, धन से करता है धर्म, तब सुख-ही-सुख। तो पात्रता का मूल है विनय-नम्रता, झुकना।
क्यों भला? नम्रता से दाता के मन में प्रवेश पाना, सुगम है, सहज है। इससे दाता के मन में देने की वृत्ति खिलती है, वह देने में सुख लेता है और अविनय से वह वृत्ति संकुचित होती है, वह देने में भार मानता है।
हमारे लोक-जीवन में इसका एक मर्मस्पर्शी संस्मरण सुरक्षित है, ‘कानी भाभी, पानी पिला। हाँ, इन बोलों दूध के कटोरे !'
भाभी की एक आँख शीतला में मारी गयी और अब वह कानी है। उसका देवर, भाभी के लिए जिससे प्यारा कोई रिश्ता नहीं, उससे पानी चाहता है। लोक की ही अभिव्यक्ति है, पानी से भी पतला क्या? देवर को ही क्या, पानी तो किसी को भी पिलाया जा सकता है, उसके लिए किसी पात्रता की आवश्यकता नहीं।
ठीक है, पानी पीने के लिए किसी पात्रता की आवश्यकता नहीं; पर अपात्रता न हो, यह तो आवश्यक है और ‘कानी' विशेषण ने, देवर की अविनयी वृत्ति ने, उसकी अपात्रता सिद्ध कर दी है।
भारतीय संस्कार है कि जो अपात्र को दे, अपात्रेभ्यश्च दीयते, वह पतित, तो देवर का भाभी को चुभता उत्तर है-'हाँ, इन बोलों दूध के कटोरे !' अरे देवरजी, तुम्हारे बोल तो इतने मीठे हैं कि मैं तुम्हें पानी नहीं दूध पिलाऊँगी; मुँह धोये रहो !!
हमारे लोक-जीवन में विनय का भी एक संस्मरण सुरक्षित है, 'रानी भाभी, पानी पिला; पानी देवर के कुत्तों को !'
प्यासा देवर भाभी से कहता है, मेरी रानी भाभी, दो बूंट पानी पिला दो। रानी के विशेषण में जो नम्रता है, अपनी अपेक्षा दूसरे को महत्त्व देने की जो वृत्ति है, उसने भाभी का मन पुलकित कर दिया और उसकी उदारता को, ममता को जगा दिया है।
वह कहती है, अरे देवरजी, पानी का क्या पिलाना, पानी तो मैं लाड़ले देवर के कुत्तों के लिए भी स्वयं कुएँ से भर-खींच लाऊँ देवरजी, तुम तो कुछ और पियो-दूध, लस्सी, शिकंजवी, शरबत !
माँगा था पानी, मिला चुभता ताना और माँगा था पानी, पर मिल रहा है दूध-शरबत। झुकने और अकड़ने का यह चमत्कार है।
ओह, याद आ गये बुजुर्ग दोस्त कुन्दनलाल। मेरी ही जन्मभूमि में सुनार का काम करते थे। बड़े ही दिलचस्प आदमी थे। जब हम उनकी दुकान पर पहुँचते, वे सोने-चाँदी का कोई ज़ेवर बनाते होते और हम कहते, “कहिए, क्या बना रहे हैं भाई साहब?"
वे अपना हथौड़ा रोक देते और राजा टोडरमल के समय का अपना चश्मा नाक से माथे पर रखते हुए कहते, “अजीब सवाल है कि आज मैं क्या बना रहा हूँ? अरे भाई, किसी की बनती है नथ, किसी की अंगूठी, किसी का हार और किसी का कंगन, पर अपनी तो मैं दाल-रोटी ही बनाता हूँ, क्या आज, क्या कल और क्या परसों।" और तब ऐसी मीठी हँसी हँसते कि उस बुढ़ापे में भी उनका खुबानी चेहरा कन्धारी अनार हो जाता !
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