कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
अपनी ठुक-ठुक के बीच इन्होंने उर्दू में कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। एक शेर याद आ गया है पर याद धोखा दे गयी, शेर कहाँ, शेर का भाव ही है बस कि सुराही बहुत क़ीमती है, उसमें शराब भी बहुत क़ीमती है और वह साक़ी के बहुत क़ीमती हाथों में भी है-है बेशक, पर महत्त्व तो उस मामूली प्याले का है, जो उस सुराही को सिर झुकाकर शराब देने के लिए विवश कर देता है।
वही बात कि देने से बढ़कर लेने वाले की पात्रता है। लो, स्मृति के आसन पर आ बैठे हैं पूज्य मदनमोहनजी मालवीय, जिन पर सदा धन बरसा। उस बार काशी विश्वविद्यालय में उनके दर्शन करने गया, तो बातों-बातों में उन्होंने कहा था, "देश के हर द्वार पर एक दाता खड़ा है अपनी खुली थैली लिये, पर कमी उन हाथों की है, जिनमें वह अपनी भेंट दे सके !"
मेरे उठते-उठते, आग्रह से कहा था उन्होंने, “भूलना मत इसे।"
और बम्बई मेल के उस थर्ड क्लास कम्पार्टमेण्ट में उस दिन पूज्य मालवीयजी के सन्देश का परीक्षण कितना सफल रहा था :
मेल का हर डिब्बा क़रीब-क़रीब ‘एयरटाइट' था; बस ख़ाली था एक डिब्बा, पर इसमें चढना शेर की दाढ से गोश्त निकालना था। स्टेशन के आते ही उसकी बन्द खिड़की से एक रोबीले पेशावरी पठान का चेहरा बाहर निकल आया। खिड़की के बाहर हम सात मुसाफ़िर थे। खान और फ़ौजी उस युग के शेर-साँप थे; उन्हें लाँघना कठिन क्या, असम्भव ही था।
ख़ान ने मुसाफ़िरों को देखा और पूरे रौब से कहा, “खिड़की नहीं खुलेगा।"
हम सबने समझ लिया कि ठीक ही है यह कि खिड़की नहीं खुलेगी, तो हम सात मुसाफ़िरों में से पाँच तो उसी क्षण दूसरे डिब्बे की ओर भाग निकले। छठे ने सामने से आते चैकर से शिकायत की. “जनाब. ये हज़रत पूरा डिब्बा घेरे बैठे हैं और हमें चढ़ने नहीं देते।"
चैकर महोदय ने अपने नये यूनीफ़ार्म के रौब में ज़रा डाँट के स्वर में खान से कहा, “आप दूसरे मुसाफ़िरों को चढ़ने से नहीं रोक सकते; खोलिए खिड़की।"
खान ने सचमुच खिड़की खोल दी और चैकर की ओर मुसकराते हुए कहा, “ओः शाला, तुम बैठाएगा इशको? बैठाओ। जब गाड़ी चलेगा और हम इस शाला को बाहर फेंकेगा, तो तुम शाला झण्डी हिलाना।"
चैकर तो खिसका ही, वे मुसाफ़िर महाशय भी नौ-दो-ग्यारह हुए। ख़ान ने उन्हें आवाज़ देकर कहा, “ओः शाला, कहाँ जाता है? आवो ईढर, हम पूरी शीट देगा।" निमन्त्रण काफ़ी उदार था, पर उसे स्वीकार करने की शक्ति उन महाशय में न थी। वे चले, तो चले ही गये। खान ने अपनी खिड़की धम से बन्द कर ली।
मैं अब भी अपनी जगह खड़ा था, अपनी अटैची हाथ में लटकाये। ख़ान ने मुझे देखा मैंने ख़ान को। उसने क्या सोचा मैं नहीं जानता, पर मैंने सोचा, "मालवीयजी महाराज का वचन है कि हर द्वार पर एक दाता खड़ा है, तो क्या यह ख़ान भी दाता है?"
तभी खान ने मुझसे कहा, “तुम नहीं गया?"
मैंने संक्षेप में कहा, "नहीं खान साहब !"
"क्यों, गाड़ी में नहीं चड़ेगा?"
“चढ़ूँगा, अगर आप प्यार से चढ़ाएँगे।"
"क्यों? दूसरे डब्बे में नहीं चड़ेगा?"
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में