कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
"ख़ान साहब, आप एक बहादुर पठान हैं और बहादुर आदमी का दिल बहुत बड़ा होता है। उसमें ही जगह न मिले, तो फिर कहाँ जगह मिलेगी?"
"तुम डरता नहीं, हम तुम्हें नीचे फेंक देगा?"
“नहीं ख़ान साहब, बहादुर आदमी के पंजे सख़्त होते हैं, दिल मुलायम होता है। आप मुझे नीचे नहीं फेंक सकते।''
ख़ान ने कुछ सोचा कि तभी गार्ड की सीटी वजी और हरी झण्डी हिली। खान ने खिड़की खोली और मुझे बुलाया। मैं झपटकर खिड़की पर पहुँचा कि खान ने सहारा देकर मुझे भीतर ले लिया।
अठारह आदमियों के बैठने लायक़ उस छोटे-से डिब्बे में खान था, उसकी खूबसूरत बीवी थी और दो बच्चे थे। सबके बिस्तर बिछे थे; जैसे वे पलँग पर ही हों। मैंने ख़ान की बीवी को सलाम किया और ख़ान को धन्यवाद दे, दूसरी तरफ़ बैठ गया। कुछ देर बाद धीरे-से ख़ान मेरे पास आया और उसने मुझे दो बहुत बढ़िया सेब दिये। खाकर मज़ा आ गया और मैंने सोचा, 'मालवीयजी महाराज का वचन सत्य है कि देश के हर द्वार पर एक दाता खड़ा है, अपनी खुली थैली लिये, पर कमी उन हाथों की है, जिनमें वह अपनी भेंट दे सके।"
सचमुच यह ख़ान, जिसे हम सात मुसाफ़िरों ने यमदूत या जीता भूत समझा था, एक दाता ही तो था और उसकी प्यार-भरी भेंट मेरे हाथों में थी, पर मेरी सनक देखिए कि मैं अब अपने दाता की कसकर परीक्षा लेने पर तुल गया था।
दूसरे स्टेशन पर गाड़ी आकर रुकी तो समय की बात, स्टेशन मेरी तरफ़ था। ख़ान की तरह मैं खिड़की से बाहर झुक गया। तीन मुसाफ़िर थे-दो जवान एक बूढ़ा। बिना ख़ान की तरफ़ देखे, ज़ोर से मैंने कहा, “बूढ़े बाबा, यह खान साहब का डिब्बा है। उन्होंने मुझे मेहरबानी करके बैठने की जगह दे दी है। वह जगह मैं तुम्हें दे दूंगा और खुद खड़ा रहूँगा। तुम भीतर आ जाओ।" और बिना क्षण-भर रुके, मैंने उन दोनों जवानों से कहा, "तुम्हारे लिए खिड़की नहीं खुलेगी, तुम कहीं और चले जाओ।"
तुरत वे दोनों चले गये और मैंने बूढ़े को भीतर ले अपनी जगह बैठा दिया। मैं कुछ देर तो खिड़की पर झुका रहा और फिर दीवार से लगकर खड़ा-खड़ा अपनी पुस्तक पढ़ने लगा। कोई बीस मिनट बाद ख़ान ने पूछा, "तुम क्यों खड़ा है मेरे भाई?"
सरलता से मैंने कहा, “खान साहब, आपने मेहरवानी करके जो जगह मझे दी थी. वह मैंने बढे बाबा को दे दी. लेकिन मझे कोई दिक्कत नहीं है, आप आराम से लेटिए।' खान ने बिना अपनी गम्भीरता भंग किये कहा, “नहीं, तुम भी बैठो।' खान को धन्यवाद देकर मैं बैठ गया।
दूसरे स्टेशन पर गाड़ी ठहरी तो मैंने एक स्त्री और उसके बालक को अपनी जगह बिठा दिया और खड़ा हो गया। कुछ देर बाद ख़ान की बीवी ने ख़ान के कान में कुछ कहा और खान ने मुझे फिर बैठा दिया।
अब दोपहर भर गयी थी। सोने के लिए करवट लेते-लेते खान ने मुझसे कहा, “तुम चाएगा तो किसी को बैठाएगा पर तुम ज़रूर बैठेगा, हम सोता है।"
और ख़ान जब सोकर उठा तो हम बाहर थे। ख़ान देखकर हँसा और बोला, “सरकार तुमको रोज़ बोम्बे मेल में रखे तो बीत मुसाफ़िर को आराम होगा।"
मैंने कहा, “पर खान साहब, आपको भी मेरे साथ रहना पड़ेगा; नहीं तो मुझे खाली डिब्बा कहाँ मिलेगा !" ख़ान और उसकी पत्नी इतने ज़ोर से हँसे कि मज़ा आ गया।
शाम को सात बजे मैं अपने स्टेशन पर उतरा तो ख़ान ने मुझसे हाथ मिलाया और उसकी बीवी ने मुझसे पहले मुझे सलाम किया।
ख़ान की सख्ती क्यों छूमन्तर हो गयी थी?
ख़ान देने को क्यों उतावला हो उठा था?
मेरी सफलता का रहस्य क्या था?
धूप-बत्ती तीन दियासलाइयों में क्यों न जली?
चौथी दियासलाई के छूते ही क्यों जल उठी?
देख रहा हूँ, “धूप-बत्ती झम-झम जल रही है और मेरी कोठरी उसकी भीनी सुगन्ध से भरी है। सोच रहा हूँ, यह पहली दियासलाई में जल जाती तो यह बात और बात में छिपी बात मैं कैसे पाता?
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में