कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
|
335 पाठक हैं |
सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
दो
जानकारी पूरी हुई तो जी-जान से मुझे लिपटी। मेरे मित्र मिट रहे हैं और इस मिटने में उनकी ममता है आधार। इस तरह लगता है कि अपने को सहकर वे कुछ श्रेष्ठ कार्य कर रहे हैं, पर श्रेष्ठ कार्य का परिचय सम्पर्क पाकर मन के भीतर जो चिकनाई आया करती है, वह नहीं आ रही और लग रहा है, जैसे यह सब कुछ शुभ नहीं है, सुकार्य नहीं है।
मैं मित्र के कमरे में उनके पलंग पर पड़ा सोच रहा हूँ। सोचने की कोई विशेष विचार केन्द्र में नहीं है, पर वैसे विचार इतने हैं कि भीड़ लगी है विचारों की और उसमें से किसी को जानना-पहचानना ही मुश्किल है तो पाना कहाँ सुगम?
सपनों में कहीं की कड़ी कहीं मिल जाती है। मैं भी इस समय ठेठ जागरण में हूँ, पर सपनों से कम नहीं। मेरे भटकते विचारों की कड़ी भी यह लीजिए जा मिली है मेरे एक पुराने मित्र के साथ।
उनमें प्रतिभा भी है और पुरुषार्थ भी। उनमें पत्रकार-कला के गुणों का अनुपम विकास हुआ है और वे अपना आपा उसे दे पाएँ, तो एक चमत्कार कर दें। अपने राज्य की राजनीति के वे प्रथम पुरोहितों में हैं और वे राजनीति में ही समाये रहते, तो उस राज्य के मन्त्रिमण्डल की सदस्यता तक पहुँचते, पर हुआ यह कुछ नहीं और उन्नति की नाव एक मामूली स्कूल की अस्थायी अध्यापकी तक ही पहुँच पायी। बातें वे भले ही सदा एक ऊँचे धरातल से करते रहे, पर थके-थके और निचुड़े हुए, जैसे साँस चल रहे हैं और जान निकल गयी। प्रतिभा यदि कोई स्थायी तत्त्व है तो कहना चाहिए कि उनकी पैनी प्रतिभा कुण्ठित हो गयी।
पत्नी अनपढ़ है सो कोई बात नहीं, पर अनगढ़ है और मूर्खता का ऐसा एक भी तत्त्व नहीं जो उसमें भरपूर न हो। वह जीवन में एक ही सफलता मानती है पैसा और इस दृष्टि से उसका पति एक असफल मनुष्य है, एक अत्यन्त मामूली आदमी जो परिवार को न रेशम दे सका, न मक्खन।
इन असफलताओं की जड़ में पति की विशेषताएँ हैं यह वह नहीं समझ सकती और नयी सफलताओं के लिए आज वह नये प्रयत्न नहीं कर पाता, उसका कारण घर का निराश वातावरण है, जिसकी जननी वह स्वयं है, यह उसे ब्रह्मा भी नहीं समझा सकता। नतीजा यह कि हर समय उसका विद्रोह भड़का रहता है, बक-झक, ठोक-पटक, मारा-पीटी और आँसू उसके जीवन-सहचर हो गये हैं।
मेरे ये मित्र क्या करते हैं? प्रश्न ज़रूरी है और इससे भी ज़रूरी इस प्रश्न का उपप्रश्न कि वे इन सबको पत्नी का अपराध मानते हैं या अधिकार? यदि यह अपराध है तो दण्ड चाहता है, भले ही यह दण्ड हिंसा का ‘लात-घूसा कमर मध्ये' हो या अहिंसा का अनशन और अधिकार है तो यह स्वीकृति चाहता है।
सचाई यह कि आज न यह अपराध है न अधिकार, अब तो यह उस परिवार के वातावरण का एक अंग है-अनिवार्य अंग, जिसे सहना है, सहे जाना है, यदि छेड़कर उसे और ज़्यादा बढ़ाना न हो !
सोचने का अवसर तब था, जब यह आरम्भ हुआ, पर तब मेरे मित्र ने उससे टक्कर नहीं ली। उससे बगलगीर होने की, उसे सहकर शान्त करने की, पचाने की चेष्टा की। निश्चय ही पत्नी समझदार होती, तो इस सहन
पर नम्र पड़ जाती, कोमल हो उठती, पर मूर्ख थी, सो अकड़ गयी और यहाँ तक कि लकड़ी हो गयी, अब टूट सकती है, मुड़ नहीं सकती।
मैं अकसर देखता हूँ, मेरे मित्र अपने जीर्ण-शीर्ण शरीर से आठ-दस घण्टे काम ले, शाम को पाँच बजे घर आते हैं। आवश्यक है कि उन्हें घर आते ही चाय मिल जाए, पर उन्हें कभी अँगीठी जागती नहीं मिलती। वे कुछ कहें तो होहल्ला मच उठे और बक-झक, ठोक-पटक का समारोह आरम्भ हो जाए। उनकी समझदारी उन्हें सहारा देती है। वे अँगीठी जलाकर चाय बनाते हैं। पीते हैं, पिलाते हैं और शाम के भोजन की तैयारी में पत्नी को सहयोग देते हैं, इसे शान्त रहने की रिश्वत समझिए।
'इसका जी दुःखी न हो' और 'यह किसी तरह शान्त रहे' बस इसी धुरी पर उनकी जीवनचर्या का चक्र घूमता रहता है। दूसरों के दिल न दुखने का धुआँ जैसे उन्हें घेरकर घोट रहा है।
|
- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में