कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
तीन
इन मित्र की बात पूरी हुई है तो फिर उन्हीं मित्र की बात सामने आ गयी है और यह लीजिए, दोनों मित्रों की बात रल-मिलकर अपने में एक हई जा रही है; जैसे ये दोनों दो न होकर एक ही हों। दोनों मिलकर जैसे एक ही स्वर में मुझसे पूछ रहे हैं, यह जो हम इतने समय से अपनों के अत्याचार चुपचाप सह रहे हैं, हमारी किसी निर्बलता का दण्ड है या ममता का यज्ञ? और मेरे भीतर जैसे कहीं से उनके प्रश्न के उत्तर में एक नया प्रश्न गूंज रहा है, किसी की दुष्टता-मूर्खता या निर्बलता को सहना पाप है या पुण्य?
प्रश्न एक की जगह दो हो गये हैं, पर दो से सौ भी हो जाएँ तो क्या; प्रश्न का उत्तर प्रश्न तो नहीं है। मुझे समाधान चाहिए तो पडा हँ मैं मित्र के पलंग पर अपनी देह से और जाने कहाँ-कहाँ घूम रहा हूँ अपने मन से। घूमते-घूमते मैं अपने जीवन के एक बीते संघर्ष के बीच से निकल गया हूँ और तब मेरे सामने आ गया है वह सूत्र, जो उस संघर्ष में एक दिन मेरे हाथ आ गया था। लग रहा है कि उस सूत्र में इन प्रश्नों का समाधान है।
वह सूत्र यह है : तुम जिस संघर्ष में, सहन में, दौड़-धूप में, बाज़ी में, लगन में जुटे हो, जूझ रहे हो, वह तुम्हारे लिए ठीक है या नहीं, पकड़े रखने लायक़ है या छोड़ देने के क़ाबिल, इसकी कसौटी यह है कि तुम यह देखो कि उस संघर्ष से, दौड़-धूप से, तुम्हारी मानसिक शक्ति-भीतरी शान्ति, सन्तुलन, आनन्द और स्थिरता-बढ़ रही है या घट रही है?
यदि इस प्रश्न का अपने ही भीतर, अपने को, अपनेआप दिया उत्तर है यह कि बढ़ रही है, तो हार हो या जीत, लाभ हो या हानि, तुम अपनी जगह खड़े रहो, अपनी धुन में जुटे रहो, हारकर भी जीतोगे, खोकर भी पाओगे, पर यदि तुम्हारी मानसिक शक्ति घट रही है तो उस काम में लाभ-ही-लाभ लग रहा हो या विजय पर विजय सामने दीख रही हो, उसे तरत छोड़ दो और इस बारे में न किसी का परामर्श लो, न कहना मानो, बस तुरत उससे हट जाओ, उसे छोड़ दो; भले ही लोग इसके लिए तुम्हें लांछित करें, कायर कहें, तुम्हारी खिल्ली उड़ाएँ।
ऐसा लग रहा है कि मैं प्रश्नों के भँवर से निकलकर साफ़-सुथरे तट पर आ गया हूँ और वहाँ से साफ़ देख रहा हूँ कि मेरे इन मित्रों ने प्रेम से, ममता से, उदारता से, दया से, सहिष्णुता से, बुद्धिमत्ता से जो कुछ सहा है, उससे उनकी शक्ति नहीं बढ़ी है; अरे भाई, साफ़-साफ़ यह कि घटी है तो वह सब पुण्य नहीं था, धर्म नहीं था, सुकार्य नहीं था।
मुझे ख़ुशी हो रही है कि मैं कुछ पा गया हूँ, कुछ क़ीमती चीज़, काम की चीज़, निराली चीज़ और उस चीज़ की मैं जो छाड़-पछोड़ कर रहा हूँ तो मेरे मन में उभर रहा है यह पूरक सत्य : 'जब अपने घर में, जीवन में, वातावरण में, अपने विरुद्ध कोई प्रतिवादी तत्त्व जागे, उभरे या बाहर से आए, तो उसके पनपते-न-पनपते स्वयं पच जाने की भोली कल्पना न करो, उसे धो-माँजकर ही या झकझोर कर समो दो और यों सब काम छोड़कर वातावरण को शुद्ध, साफ़ और सम कर लो।
यह सम्भव है कि उस प्रतिवादी तत्त्व के विरुद्ध मन में क्रोध की प्रतिक्रिया उपजे और एक क्रूर आक्रमण के साथ उसे मिटा देने की भावना जग उठे, अपने में उसे मिटा देने की ताकत महसूस हो तब भी उससे बचो, यही श्रेयस्कर है, क्योंकि वृत्तियों की प्रचण्डता विरोधी को चोट पहुँचाए या नहीं, जिस हृदय में वह घुमड़ती है उसे अवश्य क्षत-विक्षत कर डालती है।
यहीं यह भी सम्भव है कि उस प्रतिवादी तत्त्व के सम्बन्ध में कोमलता की प्रतिक्रिया मन में उपजे और एक नरमी के साथ उसे सह जाने की भावना जाग उठे, अपने में उस सहते रहने की ताक़त भी महसूस हो और सफलता में सौ फ़ीसदी विश्वास हो, तब भी उससे बचो, क्योंकि वृत्तियों की दीनता विरोधी को चोट पहँचाए या नहीं, जिस हृदय में वह पनपती है उसे अवश्य मलीन कर डालती है।
इसलिए क्रूरता और दीनता, दोनों से बचो और प्रतिवादी तत्त्व को अपने से तोड़कर दूर फेंक दो, उससे दूर हो जाओ। उससे असहयोग कर दो, यदि सत्याग्रह करके उसे समो नहीं सकते, पचा नहीं पाते !
अपने दुखित मित्र की डायरी पढ़कर, उनके दुःख को जान-समझकर, जो कुछ सोचा है, वह सब संक्षेप में उनसे कह दिया जाए, यह भाव मन में जागा कि यह सूत्र बना, ‘दूसरे की कमज़ोरी को सहना, उसे दूर करने का उपाय करना, जीवन का उत्थान है, पुण्य है, पर इसके लिए अपने में कमज़ोरी लानी पड़े, तो यह पतन है, पाप है, अकार्य है दूसरे शब्दों में किसी की हीन वृत्ति को अपनी उच्च वृत्तियों की ढाल पर ले लेना सत्कार्य और स्वयं ही इसके लिए हीन वृत्तियों से घिर जाना असत्कार्य है। साफ़ शब्दों में हम झुककर, मुड़कर, भले ही किसी को उठा सकें, अपना सकें, पर स्वयं गिरकर तो हम यह नहीं कर सकते !
सन्त कवि ने शायद इसी सत्य को अपनी भाषा में यों कहा है, "तजो रे मन, हरि विमुखन को संग !"
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