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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

दो


मेरे एक दूसरे मित्र हैं, डबल एम. ए. और कॉलेज के प्रोफ़ेसर ! नगर में उस दिन एक सम्मेलन था। वातावरण असफलता का था, पर मेरे कहने से प्रोफ़ेसर साहब ने ख़ुद शहर भर में ऐसा रसीला ऐलान किया कि हवा बँध गयी।

सम्मेलन सफलता के किनारे छू गया, पर जब स्वयं प्रोफ़ेसर साहब माइक पर आये तो एक दुर्घटना हो गयी कि वे कुछ कह रहे थे और मैंने उन्हें संक्षेप करने को कहा तो वे भड़क उठे। वह भड़क मँह बनाकर ही न रुकी, यहाँ तक मुँह चला बैठी कि मैं उनकी गालियों का शिकार और गालियाँ भी मामूली नहीं, नम्बरी झन्नाटेदार!

लाउडस्पीकर विवेकहीन निकला और उसने उन्हें भी सबमें फैला दिया। श्रोता अप्रसन्न तो साथी अवसन्न, पर मैंने तुरत उन्हें माइक के पास से हटाकर एक सुरीले गले की कवयित्री को वहाँ खड़ा कर दिया।

सम्मेलन के साथी लिपटे कि प्रोफ़ेसर मुझसे माफ़ी माँगे। वातावरण फिर से गरम होने को ही था कि मैंने कहा, “जब मुझे यह अधिकार है कि मैं उसे गली-गली ऐलान करने को कहूँ तो उसे भी यह अधिकार क्यों नहीं है कि गुस्सा आ जाए तो चार कड़वी बात कह ले? फिर यह मेरी उनकी व्यक्तिगत बात है, कोई सार्वजनिक मसला नहीं; आप लोग शान्त रहें।"

बात समाप्त हो गयी, पर कई दिन तक मेरा मित्र प्रोफ़ेसर मेरे पास न आया। मेरी तबीयत खराब थी, इसलिए मैंने उसे एक कार्ड पर ये पंक्तियाँ लिख भेजी :

मैंने तो समझा था नखरा,
पर यह निकला गुस्सा,
नखरे पर बलि जाऊँ तेरे,
गुस्से पर दूं घुस्सा !
नखरा है, तब भी झट आओ,
तुमको चाय पिलाऊँगा,
गुस्सा है, तब भी आओ तो,
चप्पल से चमकाऊँगा !

दूसरे दिन कॉलेज में उन्हें यह पत्र मिला, तो समय काटना, कहते थे उन्हें भारी हो गया और छुट्टी का घण्टा बजते ही सीधे मेरे पास आये। मझे पता था ही कि वे आएँगे तो बस आते ही उन्हें गरम चाय तैयार मिली।

वे माफ़ी की भूमिका बाँधने लगे तो मैंने कहा, “इस भूमिका में क्या रखा है भाई, अब तो चाय की पुस्तक का रसपान कीजिए।"

चाय पीकर बोले, “उस दिन बड़ी बेवकूफ़ी हो गयी भाई साहब !"

मैंने आँखें तरेरकर कहा, “किससे?'' और बस हम दोनों हँस पड़े।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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