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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

तीन


उत्तर प्रदेशीय काँग्रेस कमेटी की बैठक हो रही थी और पूज्य टण्डनजी सभापति थे। गान्धी-इरविन समझौते के दिनों की बात है। टण्डनजी किसी काम से दस मिनट के लिए बाहर गये तो उपसभापति पं. जवाहरलाल नेहरू उनके आसन पर आ गये।

किसी रूलिंग की बात चल रही थी और बातों में गरमी आ रही थी कि श्री महावीर त्यागी ने एक विधान-ग्रन्थ खोलकर उनकी मेज़ पर रखते हुए कहा, “देखिए पेज़ नम्बर साठ, आप रूलिंग देने के लिए बाध्य हैं !"

तक़ाज़ा और प्रतिवाद जवाहरलाल के स्वभाव को पचते नहीं थे। उनकी आँखें तन गयीं और नसों में बहता खून दौड़ चला, पेंसिल की नोक से किताब को मेज़ के नीचे फेंक वे बोले, "मैं ऐसी साठ किताबें रोज़ लिख सकता हूँ।"

त्यागीजी ने इसे अपमान माना कि उनके मुँह से निकला, “यह सभापतिजी की ज़्यादती है और उधर से वे किताब फेंक सकते हैं तो इधर से भी कुछ फेंका जा सकता है, मसलन...!”

धीरे से कहे उनके अन्तिम शब्द ने जिसमें ऊ और आ की मात्रा से जुड़े सिर्फ दो ही अक्षर थे, पूरे भवन में हड़कम्प मचा दिया और दोनों तरफ़ के मित्र एक साथ चिल्ला उठे, माफ़ी माँगिए, माफ़ी माँगिए।

मेज़ पीटने का वातावरण सिर पीटने के वातावरण से भी रुद्र हो उठा कि तभी लौट आये टण्डनजी अपने दोनों कन्धों को आदत का टॅकोरा-सा देते हुए। अब दोनों तरफ़ के साथी उन्हें अपना-अपना पक्ष समझाने को बेचैन कि जवाहरलाल ने कहा, “मेरे और त्यागी के बीच यहाँ कुछ निजी बातें हो गयी हैं, पर मैं समझता हूँ कि यह मुनासिब होगा कि हम उस मसले पर विचार करें, जिस पर पहले से कर रहे थे। मेरा ख़याल है कि त्यागी भी इससे मुत्तफ़िक होंगे !"

त्यागीजी बेचारे मुत्तफ़िक न होते तो क्या करते ! मीटिंग के ख़त्म होने पर कुछ लोगों को दिमागी खाज उभरी कि उस घटना पर विचार हो, पर तभी उन्होंने देखा कि जवाहरलालजी त्यागी का हाथ पकड़ उन्हें अपनी मोटर में बैठा ले गये हैं।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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