कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
चार
ये हुए तीन संस्मरण पर तीन होकर भी जैसे एक ही हों, क्योंकि नाम-रूप की भिन्नता में भी बात तो इतनी है कि दो मित्र आपस में दूध-मिश्री-से मिले, एक दिन आ गया गुस्सा और हो गये नीम, बस दोस्ती ख़त्म और बोलचाल बन्द; यानी हो गयी लड़ाई !
हाँ जी; लड़ाई तो हो ही गयी, पर प्रश्न तो यह है कि अक़्ल बड़ी है या भैंस? और सचमुच अक्ल ही बड़ी है तो इस पहले प्रश्न में से यह नया सवाल भी पैदा होगा ही कि यह क्या बात है कि जो आज मिश्री हैं, वे कल नीम हो जाएँ और जो एक-दूसरे से मिले बिना, आज भोजन नहीं पचा पाते, वे कल दूसरे की सूरत देखने से भी बेज़ार हो उठे?
यह गुस्से की काली करामात है और गुस्सा है आदमी की मज़बूरी। बड़े से बड़ा क्रोधी भी नहीं चाहता कि उसे क्रोध आए, पर वह आता है और ऐसा आता है कि आदमी भूत हो जाए !
मान गये कि आदमी को गुस्सा आएगा ही और दो मित्रों में आपसी लड़ाइयाँ भी होती रहेंगी ही, इसलिए यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि गुस्सा क्यों आए, प्रश्न यह है कि गुस्सा जब आ ही जाए, तो हम क्या करें?
इस ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर पहले दो संस्मरणों में है कि यदि दुर्भाग्य से दो मित्रों में से किसी एक को गुस्सा आ ही जाए, तो यह क्यों ज़रूरी हो कि दूसरा भी आपे से बाहर हो? क्या हम किसी को मैले कपड़े पहने देखकर अपने साफ़ कपड़ों पर धूल डालते हैं? किसी लँगड़े या काने को देखकर अपनी टाँग तोड़ लेते या आँख फोड़ लेते हैं?
नहीं, हम ऐसा नहीं करते ! यह ठीक भी है तो फिर अपने मित्र को गुस्सा आ जाने पर हम स्वयं भी आगबबूला होना क्यों ज़रूरी समझते हैं?
जब हमारे मित्र को गुस्सा आता है तो क्या यह कोई अच्छी बात होती है? नहीं, तो फिर हम एक बुरी बात की नक़ल क्यों करें? उन्हें गुस्सा आ गया तो आ गया पर आप यत्न करके, उस मित्र की एक मज़बूरी मानकर चुप रहिए, शान्त रहिए, मधुर रहिए और इस तरह अपने मित्र की मदद कीजिए।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
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- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
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- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
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- सीता और मीरा !
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- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
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- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में