कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
स्वरूप :
वे बोल कुछ इस तरह थे : मनुष्य जाने कब जंगलों में जनमा और पनपा-पला। जंगल की उस जन्मभूमि में मनुष्य के साथी थे जंगली जानवर-शेर, चीते, हाथी, भालू, भेड़िये और अजगर। वह उन्हीं की तरह शिकार करता-खाता, उन्हीं की तरह लड़ता-मरता। उन्हीं की तरह शरीर की दूसरी माँगें पूरी करता, उन्हीं की तरह रहता-सहता और जैसे वे थे वैसा वह था, उन्हीं में एक !
यों ही युग बीत गये।
वह जंगल में जंगली जानवरों की तरह, जंगली जानवरों के साथ, जीता-मरता रहा। पंजे ही उसकी शक्ति, इच्छा ही मार्ग-दृष्टि और यों वह निर्द्वन्द्व, अल्हड़ और मस्त-दो पैरों का एक चौपाया !
जाने कब, कैसे और क्यों उसने दूसरे जानवरों की ओर देखा और फिर अपनी ओर। जाने कब तक, कितने युगों तक वह यों ही कभी उन्हें और कभी अपने को देखता रहा।
देखते-देखते वह कुछ सोचने लगा। जाने कितने युगों तक वह क्या-क्या सोचता रहा और तब उसके अन्तर में एक पुकार उठी, मैं पशुओं में हूँ, पशुओं जैसा ही हूँ, पर पशु नहीं हूँ।
मनुष्य के हृदय में सहज भाव से उठी यह पुकार, बहुत-सी बातों में पशु के समान होकर भी पशु न होने की, उससे भिन्न होने की, उससे श्रेष्ठ होने की, यह आत्म-चेतना ही मनुष्य की संस्कृति है।
मनुष्य के विकास की पृष्ठभूमि यही आत्म-चेतना, यही संस्कृति है। यह संस्कृति ही उसकी मूल प्रेरणा है। इसी ने उसकी जीवन-दृष्टि को विशिष्टता दी है और इसी ने उसके जीवन-व्यवहार को उच्चता। इसी से मनुष्य उठा और अपने निर्माण के पथ पर चला; क्योंकि अब उसे हर बात में पशु से अपनी श्रेष्ठता अनुभव करनी थी और प्रदर्शित भी।
संस्कृति मनुष्य के जीवन का शाश्वत सत्य है, यही मनुष्य और पशु के बीच की विभाजक रेखा है।
अपने अन्तर्यामी के ये बोल सुनकर मैंने सोचा, संस्कृति में उलझन कहाँ है? कहीं भी तो नहीं !
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में