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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


साक्षात्कार :

संस्कृति का स्वरूप अब मेरे सामने था, पर उस दिन मुझे अचानक संस्कृति का साक्षात्कार ही हो गया, जैसे योगी को ब्रह्म-ज्ञान के बाद ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाए।

यह मेरे जीवन का एक चमत्कार था !

और यह भी एक चमत्कार ही था कि जीवन का यह चमत्कार एक रात को सिनेमा देखते समय हुआ !

तसवीर थी ‘प्यार की जीत'। कहानी यों थी कि स्त्री-पुरुषों के दो जोड़े थे, एक सज्जन और एक दुर्जन। सज्जन जोड़ा जीवन में एक होना चाहता था पर दुर्जन जोड़ा इसमें बाधक था। सज्जन जोड़ा यदि एक हो जाए तो उसे एक बड़ी सम्पत्ति मिलने वाली थी, पर दुर्जन जोड़ा इस सम्पत्ति को स्वयं हड़पना चाहता था।

कहानी का प्रवाह सज्जनता और दुर्जनता के सघन सनसनीपूर्ण घात-प्रतिघात से भरपूर था। सिनेमा हाल अन्धकार से भरा था। मैं ज़रा बाद में आया था और मुझे पता न था कि मेरे आस-पास कौन बैठे हैं। कहानी बलखाती-इठलाती चल रही थी।

सज्जन जोड़ा मिलने का प्रयत्न करता, सफलता निकट दिखाई देती कि वे मिले, वे मिले, वे एक हए कि दर्जन जोडा अपना दाँव मारता और ये दोनों बहुत दूर जा पड़ते। चोट सहकर वे दुर्जन जोड़े पर चोट करते और दुर्जन जोड़ा चारों खाने चित दिखाई देता।

मेरा ध्यान इस बात पर गया कि जब दुर्जनता की विजय होने लगती है, तो मेरे आस-पास बैठे लोगों का साँस रुकने लगता है और सज्जनता जीतती है तो उनकी तालियों की गूंज से सारा हाल गड़गड़ा उठता है।

एक ऐसी ही गड़गड़ाहट में मध्यान्तर हुआ और ऊपर से प्रकाश के आते-आते सुना, “ऐसे बदमाशों को तो गोली मार देनी चाहिए।" मुड़कर देखा तो यह श्री चावला की आवाज़ थी। यह पुरुष अपनी दूकान स्वयं फँककर बीमा कम्पनी से बीस हज़ार रुपये उड़ा चुका था !

सज्जनता की जीत पर मेरे पीछे भी बहत तालियाँ पिटी थीं। उधर देखा तो मैं धक् रह गया। ये एक कपड़े के व्यापारी थे और अपनी विधवा बुआ की हत्या कर उसका धन हड़प चुके थे !

समय की बात, मेरी दृष्टि जिन पर भी उस समय टिकी वे अधिकतर इसी श्रेणी के पुरुष थे।

अचानक मेरे मन में प्रश्न उठा, ये लोग दुर्जन जोड़े की श्रेणी में हैं, फिर यह क्या बात है कि ये तालियाँ बजा रहे हैं सज्जन जोड़े की जीत पर? साफ़ शब्दों में, इनकी सहानुभूति तो दुर्जन जोड़े के साथ होनी चाहिए !

मैं अपने प्रश्न से बेचैन था और कहानी फिर उसी घात-प्रतिघात में चल रही थी। अन्त में दुर्जनता बुरी तरह हारी और सज्जनता पूरी तरह जीती, तो हाल तालियों से हिल-हिल उठा। मैं हाल से बाहर निकल तारों की छाँह में आया और पार्क के लॉन पर जा बैठा। मेरा प्रश्न भीतर ही भीतर मुझे उधेड़ रहा था।

सहसा मेरे अन्तर्यामी के बोल मुझे फिर सुनाई पड़े, मनुष्य युग-युगों तक जंगल में रहा है, पशुओं में रहा है, पशुओं की तरह रहा है। उस काल की आदतें, प्रवृत्तियाँ आज भी उसके साथ हैं। ये प्रवृत्तियाँ उसे पशुता की ओर बहा ले जाती हैं, वह पशुता के कार्य करने पर उतारू हो जाता है, पशुता के कार्य करता है पर उसके भीतर अपने को पशु से भिन्न बतलाने वाली, अपने को पशु से श्रेष्ठ समझने वाली एक आत्म-चेतना है और वह उसे सदा पशुता से रोकती है।

मनुष्य बुद्धि के, परिस्थितियों के, प्रलोभन के, माया-जाल में फँस भले ही आत्म-चेतना की उस रोक को न माने, लाख पशुता करे, वह चेतना अपना काम करती रहती है। तभी तो बुरे होकर भी प्रशंसा हम भलाई की ही करते हैं, दुष्ट होकर भी विजय हम सज्जनता की ही चाहते हैं और इस प्रकार हमारे ऊपर पशुता का लाख अँधेरा छा जाए, हमारे अन्तर में देवत्व का प्रकाश ही रहता है। यही संस्कृति का दीपक है। इसी दीपक के प्रकाश की वाणी है : नहि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्, मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है।

मुझे लगा कि मेरे बाहर, भीतर, आगे, पीछे, ऊपर, नीचे, चारों ओर दीपक ही दीपक जल रहे हैं और तब पार्क की उस हरी दूब पर खुले आकाश के नीचे मैंने अपने से कहा, यही संस्कृति का साक्षात्कार है।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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