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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


वंश-वृक्ष :

हाँ, तो जंगल में, जंगली जानवरों के साथ, जंगली जानवरों की तरह रहते मनुष्य के अन्तर में चेतना जागी कि मैं पशुओं में हूँ, पशुओं-जैसा ही हूँ, पर पशु नहीं हूँ, यानी उनसे भिन्न हूँ, उनसे श्रेष्ठ हूँ।

यह हुआ संस्कृति का जन्म।

इस चेतना के जन्म से मनुष्य पर जो पहला प्रभाव पड़ा, वह था यह कि अब उसे पशु और मनुष्य में भिन्नता अनुभव होने लगी। भिन्नता के इस बोध ने उसकी मनोवृत्ति में जो गहरा परिवर्तन किया, वह यह था कि दूसरा मनुष्य उसे अब पहले से अधिक अपना दीखने लगा।

इसका यह फल अनिवार्य ही था कि मनुष्य को अब मनुष्य के साथ पशु से भिन्न व्यवहार करने की, अच्छा व्यवहार करने की इच्छा-प्रवृत्ति हो। धीरे-धीरे इस इच्छा ने जिस व्यवहार-पद्धति को जन्म दिया, आगे चलकर उसी का नाम पड़ा सभ्यता। सभायां साधुः सभ्यः-सभा में, चार आदमियों में बैठकर जो आदमी भला लगे, जिसका व्यवहार अच्छा हो, वही सभ्य कहा-माना जाने लगा।

सभ्यता, मनुष्य और मनुष्य के बीच व्यवहार की एक पद्धति, जिसकी पृष्ठभूमि है सहयोग की भावना। इस भावना से मनुष्य ने छोटे-छोटे संघों के रूप में समाज की, सामूहिक जीवन की रचना की, जिसकी पृष्ठभूमि है पशुओं के भय से सुरक्षा का आश्वासन।

तो अब मनुष्य के लिए अपना ही सुख-दुःख अपना सुख-दुःख न रहा, अपनों का सुख-दुःख भी अपना सुख-दुःख हो गया, भले ही ये अपने दस-बीस हों या चालीस-पचास।

ये अपने मिलकर बैठते, बात में बात निकलती। इन बातों में जिन अजेय जिज्ञासाओं ने जन्म लिया उनमें मुख्य थीं प्रकृति की चमत्कार-भरी व्यवस्था और मृत्यु।

सूर्य कैसे समय पर निकलता है? तारे क्या हैं? बादलों में पानी कहाँ से आता है? फूल कैसे खिलते हैं? चाँद कैसे घटता-बढ़ता है और पूर्ण होता है? ऋतुएँ कैसे बदलती हैं?

ये प्रश्न आये तो यह प्रश्न आएगा ही कि वह कौन है, जो यह सब करता है और दिखाई नहीं देता।

साथ ही यह भी कि यह मृत्यु क्या है? पहले मनुष्य अपने में जीता था और कहीं भी मर जाता था पर अब वह अपनों में जीने लगा तो अपनों में मरने लगा। अपने के मरने का दुःख होता ही है, उसका अभाव खटकेगा ही तो प्रश्न पैना हो आया कि वह क्या था, जिसके न रहने से आदमी मर गया? और मरकर वह कहाँ गया?

इन जिज्ञासाओं ने मनुष्य में एक अप्रत्यक्ष के प्रति आस्था उत्पन्न की और इस आस्था ने मनुष्य में जिन दो नयी भावनाओं को जन्म दिया, उनमें एक का नाम पड़ा धर्म और दूसरी का दर्शन।

धर्म बाहर खोजता रहा, दर्शन भीतर। धर्म की खोज मनुष्य को अपना जो सर्वोत्तम दे पायी, उसका नाम है ईश्वर और दर्शन की खोज मनुष्य को जो सर्वोत्तम दे पायी, उसका नाम है आत्मा। इतिहास-पुरुष शंकराचार्य ने दोनों की एकता प्रतिपादित की और आत्मा को ही परमात्मा बताया।

बस संस्कृति का यही वंश-वृक्ष है : संस्कृति माता की पुत्री सभ्यता, सभ्यता का पुत्र समाज, समाज के जोड़ले पुत्र धर्म और दर्शन, धर्म का पुत्र ईश्वर और दर्शन की पुत्री आत्मा।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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