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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

सात


और तब मुझे याद आ गयी वह ऐंग्लो इण्डियन महिला, जिससे अचानक उस साल शिमले में परिचय हो गया था। मिस नार्मन साड़ियों की एक बहुत बड़ी दूकान में सेल्समैन थी और उसका मुख्य काम था ग्राहक स्त्रियों को एकान्त कमरे में साड़ी पहनाकर ख़रीदारी के लिए तैयार करना, दूसरे शब्दों में साड़ियों के चुनाव में सहायता देना।

मैं यों ही एक पत्रकार की झक में दुकान देख रहा था कि एक दम्पती आये। दोनों साहब थे, पर यह तय करना कठिन था कि दोनों में अधिक काला कौन है। श्रीमतीजी ने चार-पाँच साड़ियाँ चुनीं और मिस नार्मन के साथ कमरे में चली गयीं। वहाँ से वह क़रीने के साथ जो साड़ी पहने हुए आयीं, उसका रंग गाढ़ा था और किनारे बॉर्डर से इतने भारी कि देवीजी मुझे साँझी-सी लगीं।

उनके पति ने मिस नार्मन से रंग और भारीपन की शिकायत की तो वे एक दूसरी साड़ी दिखाकर बोली, “भद्र पुरुष, मेरा समर्थन तो इस साड़ी को प्राप्त है, पर श्रीमतीजी की पसन्द उसके पक्ष में है।" सचमुच वह साड़ी बहुत फबने वाली थी।

पति ने रुपया दिया और चले गये। तभी मैंने आगे बढ़कर कहा, “मेरी बहन, क्या मैं इस साड़ी को देख सकता हूँ?' सम्बोधन से वह प्रसन्न हुई और साड़ी उसने मुझे दिखायी। इस साड़ी की क़ीमत दो सौ पैंतीस रुपये थी और जो वे ले गयीं उसके दाम थे तीन सौ बासठ रुपये।

"माफ़ करना बहन, एक प्रश्न है कि आप उसे कम क़ीमत की साड़ी का सुझाव क्यों दे रही थीं?” मैंने गहरे होकर पूछा तो बहुत ही सधे स्वर में मिस नार्मन ने कहा, “मेरे भाई, मेरा काम ग्राहकों के बटुए ख़ाली कराना नहीं, उन्हें चुनाव में सहायता देना है।"

मैं उसे धन्यवाद दे लौट आया, पर इतने वर्षों के बाद भी मिस नार्मन मेरे सामने खड़ी हैं और उनके साथ ही वह काली मेम भी वही बेतुकी साड़ी पहने और पहने क्या, बस लादे !

मैं सोच रहा हूँ इन दोनों महिलाओं के ठीक बीचोंबीच धनपति और धनपशु की वह विभाजक रेखा खिंची है, जिसे मैं इतने वर्षों से खोज रहा था। यह काली महिला है धनपशु का प्रतीक; क्योंकि इसके चुनाव का आधार है धन और यह गोरी महिला है धनपति; क्योंकि इसके सुझाव का आधार है सौन्दर्य, औचित्य और न्याय !

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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