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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


क्या मतलब? हाँ, ठीक है, सत्य का सूत्र हाथ आ गया है और उसकी व्याख्या अभी शेष है। हम देवता की मूर्ति के दर्शन करते हैं तो माँ का हाथ पकड़कर नहाते ही तो हैं। मनुष्य के भीतर, उसकी पार्थिव देह के अन्तर में चैतन्य की एक विशाल और तेजस्वी धारा बहती है, पर अपनी बहिर्मुखता में डूबे हम उसमें उतर नहीं पाते, उसके स्पर्श का सुख नहीं ले सकते तो अपनी सारी बहिर्मुखता को बाहर स्थित देवता की प्रतिमा में थमा-अटका, भीतर बहती चैतन्य की उस धारा का एक नन्हा-सा स्पर्श ले लेते हैं। यही दर्शन है।

और देखना फिर क्या है? प्रश्न ठीक है। देखना एक तो देखना ही है कि जो आँखों के सामने आया दिख गया-देख लिया और एक देखना है विशेष वस्तु का देखना, लाल क़िले का देखना, किसी दूसरी सुन्दर वस्तु का देखना, उसका देखना जिसे हम प्यार करते हैं। यह देखना ही असल में देखना है और इसका अर्थ है अपनी सारी बहिर्मुखता को, जो यहाँ-वहाँ बिखरी है, किसी बाहरी, पर विशेष वस्तु में एकत्रित करना।

और लो, खरीज का रुपया बनाये दे रहा हूँ-दर्शन है आन्तरिक एकाग्रता और देखना है बाहरी एकाग्रता। पहली विकास का पथचिह्न है और दूसरी विलास का।

दर्शन और देखना की धूम पूरी हो गयी है, पर एक नया प्रश्न फूट आया है : तो क्या बिड़ला-मन्दिर भी हमारी 'लक्जूरियस लाइफ़' का ही एक चोचला है, वह जीवन की विलासिता का ही एक अंग है? उसका कार्य हमारा मनोरंजन करना ही है, मानस-विकास नहीं? वह दर्शन की भी नहीं; बस देखने की ही एक चीज़ है?

मेरे पैर सड़क पर इच्छित दिशा में बढ़े चले जा रहे हैं, पर मस्तिष्क में वही प्रश्न घूम रहा है तो बिड़ला-मन्दिर भी देखना है और लाल क़िला भी, वैसे ही जैसे संसद-भवन और वैसे ही जैसे सिनेमा का कोई शो भी?

पैरों का काम पूरा हो गया और यह लो मैं अपने मित्र के द्वार पर हूँ। भीतर गया तो देखा, मित्र तो नहीं हैं, उनकी पत्नी हैं। उन्हें देखते ही मेरा प्रश्न जैसे फूट पड़ा, “आपने कभी बिड़ला-मन्दिर देखा है भाभी?"

उत्साह से बोली, “हाँ भैया, देखने लायक जगह है वह तो ! हमारे यहाँ कोई मेहमान आता है, तुम्हारे भाई साहब उसे ज़रूर दिखाने ले जाते हैं। क्यों, तुमने नहीं देखा क्या?"

उनके उत्साह से मैं और गहरे में उतर गया। हर खोज देखने लायक पर पहुँचती है। मन की उधेड़-बुन यह है कि वह कुछ और हो, पर नहीं, देखने लायक़ ही है बिड़ला-मन्दिर ! मेरी आस्तिकता विह्वल होकर पूछती है-अरे देखने लायक़ तो हर तमाशा होता है, इसे तो तीर्थ होना चाहिए, जहाँ निर्माण की प्रेरणा मिले, निर्माण का उद्बोधन !

मुझे लगा कि मेरे भीतर एक आँधी चल पड़ी है-विचारों की, मन्थन की, चिन्तन की आँधी और उसी में कहीं से सुन पड़ी यह बाँसुरी, "मूर्ख, धन तमाशे का ही निर्माण कर सकता है, तीर्थ का नहीं, तीर्थ का निर्माण करने की शक्ति तो केवल तप में है !"

आँधी शान्त हो चली है और तीर्थ के वातावरण से मेरा मन भर उठा है। मैं यह भूल गया हूँ कि कहाँ, किसके निकट हूँ और मेरी आँखें बन्द हो गयी हैं, हाथ भी परस्पर आ जुड़े हैं।

भाभी ने मुझे इस मुद्रा में देखा है और चुटकी ली है, अरे भाई, यह क्या पूजा-सी कर रहे हो?

प्रश्न ने मुझे समेट लिया है, मैं अपने में सिमट आया हूँ, पर अनुभव कर रहा हूँ कि मैं अभी हाल किसी तीर्थ में भक्ति-भाव से आत्मचिन्तन कर लौटा हूँ।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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