कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
उस दिन दिल्ली में एक मित्र से मिलने सुबह ही सुबह उनके घर गया तो मिलते ही बोले, “बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?' उनकी सालीजी आयी हुई थीं और वे उनके साथ बिड़ला-मन्दिर जाने को तैयार थे। मेरे पास न समय था, न रुचि, मैं कुछ देर मित्र से बातें कर चला आया।
बाज़ार से कुछ चीजें खरीदी और तब एक-दूसरे मित्र के घर जा निकला। समय की बात, उनके भी कुछ सगे-सम्बन्धी आये हुए थे और वे कहीं जाने की तैयारी में थे। छूटते ही पूछ बैठे, "भाई साहब, बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?'' मुझे जाना नहीं था, लौट आया।
दो-चार गलियाँ पार कर चाँदनी चौक में आया ही था कि एक मोटर मेरे पास आकर ठहर गयी। देखा, पूरे परिवार और कुछ दूसरों के साथ मोटर में भरे वे कहीं जा रहे हैं। वे, मेरे एक मित्र और बस वही प्रश्न- “चलिए, चलते हैं बिड़ला-मन्दिर देखने?"
मैंने हाथ जोड़े और आगे बढ़ा, पर देखता हूँ एक प्रश्न सामने खड़ा है-ये सब बिड़ला-मन्दिर देखने जा रहे हैं तो क्या यह विशाल मन्दिर सिर्फ देखने के ही लिए है?
जानता हूँ देखना जीवन का कोई साधारण सुख नहीं है, आँख है तो जहान है, पर मैं एक आस्तिक प्राणी हूँ और अशान्ति के अनेक अवसरों पर मन्दिरों के वातावरण में शान्ति पा चुका हूँ। हरद्वार में मीलों की चढ़ाई चढ़कर अनेक बार मैं चण्डी के मन्दिर में पहुँचा हूँ और फिर वहाँ से नीचे उतर कर गौरीशंकर के मन्दिर में गया हूँ, शाकम्भरी के वन में विहरा हूँ और हृषीकेश के वन को पार कर आकाश तक की चढ़ाई चढ़ मैंने नीलकण्ठ के मन्दिर में भी अपने को पाया है।
ये सब तीर्थ हैं और जीवन के निर्माण में, उसे बहिर्मुखता से मोड़कर अन्तर्मुख करने में सहायक-साधन हैं। मैं जब पहली बार बिड़ला-मन्दिर गया, मुझे यह वात खटकी थी कि वहाँ कोई पूजन नहीं कर सकता, केवल दर्शन कर सकता है, पर दर्शन भी देखना ही रह गया है, यह आज जाना।
दिल्ली का लाल क़िला भी देखना है और बिड़ला-मन्दिर भी वैसे ही, जैसे संसद-भवन भी और क्या वैसे ही कि जैसे सिनेमा का कोई शो भी?
दर्शन और देखना, देखना और दर्शन, दोनों मेरे भीतर आगे-पीछे घूम रहे हैं। वे क्या घूम रहे हैं, मैं ही घूम रहा हूँ। घूम इतनी तेज़ है कि अपनी प्रौढ़ वय में ही मैं कोई पाँच-छह वर्ष का बालक हो गया हूँ और हरद्वार में गंगा नहाने पहुँचा हूँ। माँ मेरे साथ है और वह चाहती है कि मैं गंगा में घुस कर गोते लगाऊँ, पर इतनी विशाल गंगा और यह तेज़ धारा, मेरी हिम्मत नहीं होती।
माँ जल से ऊपर की पैड़ी पर बैठ गयी और उसने मेरा एक हाथ मज़बूती से पकड़कर मुझे दो पैड़ी जल में उतार दिया। माँ के हाथ में मेरा हाथ है और मैं छबकछब नहा रहा हूँ-वाह, क्या आनन्द है?
और बस मैं फिर बालक से प्रौढ़ हो गया है। देखता हूँ चाँदनी चौक में चला जा रहा हूँ, मेरे भीतर घूम रहे हैं दर्शन और देखना, देखना और दर्शन और मैं अब पकड़ पा रहा हूँ जीवन का यह सत्य कि दर्शन है माँ का हाथ पकड़कर गंगा में नहाना !
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
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- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
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- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
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- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
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- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
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- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
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- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में