कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
दो
और ताला, क्या लोहे पीतल का ही ताला, जैसा बड़े मियाँ ने अपने पानदान पर लगा रखा है?
प्रश्न अजीब है, अजीब कुछ अद्भुत नहीं, निरर्थक-अर्थहीन, क्योंकि ताला होता ही लोहे पीतल का है पर ना, प्रश्न सार्थक है-सार्थक ही क्यों बहु-अर्थक है, अनेक अर्थवाला।
निरर्थक और सार्थक की समीक्षा में ध्यान आठ हज़ार फ़ीट ऊँचे एक पर्वतीय नगर में चला गया है। लताओं का एक निकुंज और उससे सटकर बिछी सीमेण्ट की बेंच। पर्वत, वन, एकान्त और शीतल वातावरण। मैं बैठा हूँ, कहीं आस-पास कोई नहीं है, आँखों में पर्वत के शिखर हैं तो मन में भारत के भविष्य की झाँकी। जीवन के कितने स्रोत प्रवाहित हो रहे हैं उस भविष्य में कि सारा वातावरण रस से ओत-प्रोत है। वाह, कैसे सजीव गाँव, कैसे लहलहाते खेत, हँसते-खेलते बालक, उभरते तरुण, उत्फुल्ल रमणियाँ और शान्त-प्रसन्न बूढ़े। गाँव की यह ताज़गी मुझ पर छायी जा रही है।
तभी तीन सज्जन कहीं से उस बेंच पर आ गिरे ! अशिष्ट होकर नहीं, सत्यदर्शी होकर कह रहा हूँ-आ गिरे ! कोई एकान्त में आकर जाने किस ध्यान में बैठा है, इसका उनके लिए कुछ अर्थ ही न था। मैं उन्हें देख रहा हूँ और सोच रहा हूँ ये तीनों भौंदू पढ़े-लिखे हैं, पर इन्हें यह ध्यान ही नहीं है कि कहाँ बैठें, कैसे बैठें और कैसे बातचीत करें। मैंने झुककर उन तीनों के पैरों की और झाँका। उनमें कोई भी लँगड़ा न था। इस बेंच से कुछ दूर आगे दूसरी अनेक बेंचें बिछी हुई थीं और यह दस क़दम चल वहाँ बैठ सकते थे, पर नहीं इन्हें यहीं बैठना था।
बातों से जाना कि तीनों तीन कॉलिजों के प्रिंसिपल हैं। एक बोले, “बड़े धूर्त होते हैं हमारे स्टूडेण्ट। ऐसी सफ़ाई से धोखा देते हैं कि बड़े-बड़े जालसाज़ों को मात माननी पड़ती है।" दूसरा उभरा और उसने विद्यार्थियों की धूर्तता के कई क़िस्से सुनाये। तीसरा शिक्षा-विभाग के अधिकारियों की बेवकूफ़ियों का वर्णन करने लगा और बस उनकी बातें उनके कॉलेजों के क्लासों के घेरे में घूमती रहीं।
मैं थोड़ी ही देर में ऊब गया और उठ चला। चलते-चलते मैंने सोचा-विचारों की संकीर्णता में कुएँ के मेढक को सबसे अधिक अभागा कहा गया है, पर ये प्रिंसिपल क्या उनसे भी अधिक अभागे नहीं हैं कि पर्वतों की इस प्राकृतिक गोद में बैठकर भी अपनी चारदीवारी के अतिरिक्त और कुछ सोच ही नहीं सकते !
एक दूसरी बेंच पर बैठते-बैठते मेरे मन में आया, सरकार उपयोगिता के आधार पर अपने नियम बनाये तो इन तीनों और इसी तरह के दूसरे अध्यापकों को गरमी की छुट्टियों में स्कूल-कॉलेजों के पाखानों की धुलाई, छतों की घास-खुदाई, दीवारों की लिपाई, कमरों की पुताई और आँगनों की सफ़ाई के काम में लगाये। एक दिन के लिए भी कहीं जाने न दे !
इस घटना को हुए, बरसों बीत गये, यह तब की बात है, जब भारत पराधीन था, पर आज सोचा-क्या बड़े मियाँ के पानदान की तरह इन लोगों के दिमागों पर ताला नहीं लगा था? और लगा था-हाँ, लगा ही था तो क्या यह ताला लोहे-पीतल का था? ना, यह वातावरण का ताला था, उस लोहे-पीतल के ताले से भी अधिक कठोर और मज़बूत !
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में