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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


आज भी मैं उनके बीच में हूँ, पर उनका वैसा जीवनस्पर्श नहीं पा रहा है। क्या आज वे ख़ामोश हैं? ना, बात यह है कि मैं आज उनके बीच से, उनके पास से गुज़र ही कहाँ रहा हूँ-उनके बीच से गुज़र रही है एक्सप्रेस और उसमें मैं बैठा हूँ तो जब मैं उनमें हूँ ही नहीं तो उनका सुखस्पर्श कैसे पाऊँ?

तो क्या विज्ञान की हाट पर हम सुख के मोल सुविधा ही ख़रीद रहे हैं?

मुझे याद आ गयी वह नन्ही-सी चिड़िया, जो उस दिन मेरी बराबरी में उड़-उड़कर कलाबाजियाँ कर रही थी। मैं रेल के पुल पर खड़ा था, धरती से कई सौ फ़ीट ऊँचे और वहीं वह उड़ रही थी।

अचानक मेरे मन में प्रश्न आया था कि ऊँचाई में तो मैं और यह समान ही हैं, फिर आकाश-भ्रमण का जो सुख इसे मिल रहा है मुझे क्यों नहीं मिल रहा?

चिड़िया को इस प्रश्न से खीझ हुई थी और अपनी ची-ची में उसने कहा था-हम दोनों की ऊँचाई समान है, पर मैं हूँ यहाँ अपने पंखों के सहारे और तुम खड़े हो मुरदे लट्ठों पर, तुम्हें भला यह सुख कैसे मिले?

चाँदनी बरस रही है, खेतों पर, पर्वतों पर, वृक्षों पर और मैं सोच रहा हूँ उस चिड़िया की बात ! मन भी कम्बख्त अजीब फुदकैया है कि कहाँ खेत. कहाँ चिडिया और कहाँ वे एक राज्य के राज्यपाल ! परे जिले के दौरे में मैं उन्हें देखता रहा। पार्टियों में उनका दिन बीता तो समारोहों में रात, बराबर वे जनता के बीच रहे, पर क्या जन-सम्पर्क था यह? ना, ना, क्यों? क्योंकि उनके पद की प्रतिष्ठा और राजकीय वातावरण का घेरा जो उनके एवं जनता के बीच बना रहा।

चाँदनी के अथाह सागर में तैरते हुए मेरे मन ने सोचा-हमारे देश के महापुरुष लोकोत्तरता के इसी घेरे में घिरकर अवतार हो गये-परमात्मा, परम पुरुष, परमेश्वर, उनका जीवन-चरित्र भक्ति की कथा बन गया, पर हमारे देश की जनता से नित्य पूजित होकर भी वे उसकी संकट में मानी मनौतियों का ही केन्द्र रहे, उसे चरित्र न दे पाए !

चाँदनी बरस रही है और एक्सप्रेस छोटे स्टेशनों को छोड़ती, उन पर उपेक्षा की एक दृष्टि डालती बढ़ी चली जा रही है, जैसे ज्ञानी जगत् के प्रलोभनों को देखता भर है, उनमें उलझता नहीं।

यह आयी छोटे-से स्टेशन की फाटकचौकी, जिसकी छोटी-सी कोठरी में रहता है फाटकदार का परिवार, जिसे मिलते हैं थोड़े-से सिक्के, जिनसे वह जी पाता है, पर अपनी दृष्टि में वह है एक अफ़सर कि जब चाहे दरवाज़ा बन्द कर दे और टुकुर-टुकुर खड़ी ताका करे गाँव के ठाकुर की बैलगाड़ी? “कहीं दूर पर भी रेल का धुआँ दिखाई नहीं दे रहा !" तो न दिखाई दे, इससे मतलब? आख़िर उसी का निर्णय तो यहाँ माना जाएगा कि कब वह फाटक खोले और कब वह बन्द करे !

मैं देख रहा हूँ, उसका छोटा-सा कुत्ता अपने पूरे वेग से गाड़ी के साथ दौड़ा जा रहा है। बेवकूफ़, क्या ख़ाक दौड़ेगा भला रेल के साथ ! क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा?

पर नहीं, वह जी तोड़कर दौड़ रहा है-घोड़ों और खोजों के एक साथ नेता हिज़हाइनेस आगाख़ाँ का घोड़ा भी डर्बी की दौड़ में इससे तेज़ और क्या दौड़ता होगा?

तीन पल में वह पिछड़ गया और अब वह धीरे-धीरे लौटकर जा बैठेगा फिर फाटकदार की खाट के पास। रोज़ हारता है पर शर्म से डूब नहीं मरता, निर्लज्ज कहीं का?

बिना मेरी यह धिक्कार सुने वह लौटा जा रहा होगा, पर मेरी यह धिक्कार सुन मेरा मन लौट पड़ा है। रोज़-रोज़ की पराजय से जिसकी आँखों में समाया विजय का स्वप्न और पैरों में उमड़ा अभियान का संकल्प परास्त नहीं होता, वह फाटकदार का कुत्ता हो या किसी राष्ट्र का सिपाही, क्या एक प्रेरक चरित्र का संरक्षक नहीं है?

प्रश्न गूंज रहा है, चाँदनी स्वर्ग का प्रसाद बाँट रही है, एक्सप्रेस दौड़ी जा रही है, पहाड़ियाँ दोनों ओर से पास आती जा रही हैं, दूसरा स्टेशन तो लगता है कि वे दोनों हाथों से जैसे एक्सप्रेस को अपनी ही गोद में ले लेंगी-माँ जैसे दूर से दौड़कर आते शिशु को लाड़ से थाम लेती है और डिब्बे के साथी यथापूर्व अपनी कहानी, किताब, सिगरेट, बकवाद और हिसाब में तल्लीन हैं !

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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