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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

दो


यह आ गया गंगापुर स्टेशन, पर यह होहल्ला कैसा है-चढ़ते-उतरते यात्रियों का होहल्ला तो यह है नहीं, क्योंकि उसकी धुन जिस तार पर चलती है वह है उतावलापन और यह होहल्ला जिस धुरी पर घूम रहा है, वह है पीड़ा से ओत-प्रोत बदहवासी !

क्या बात है? बात क्या है? बात है यह कि एक डिब्बे में आग लग गयी है, वह काट दिया गया और अब आधी रात के समय उस डिब्बे के यात्री प्लेटफार्म पर भाग-दौड़ कर रहे हैं कि सामान सेफ़ रहे, साथी सब एक साथ रहें और दूसरे डिब्बे में जगह मिल जाए !

हमारे डिब्बे के सामने भी दस-बारह आदमी आ खड़े हए-दीन शरणार्थी की तरह, जैसे भीतर वाले तो हैं मालिक और बाहर वाले हैं भिखारी-“बाबूजी, हमें अगले स्टेशन महावीरजी पर ही उतर जाना है। ज़रा-सी जगह दीजिए, आपको बड़ा पुण्य होगा।"

“ऐ ! यह इण्टर क्लास है, ड्योढ़ा, ड्योढ़ा, आगे जाओ !' यह सरकार के आलोचक रोब से गरजे !

“पीछे, पीछे, सब ख़ाली पड़ा है पीछे !” यह जासूसी उपन्यास के पाठक ने दरवाज़ा रोककर कहा।

मैंने दूसरा दरवाज़ा खोलकर कहा, “इधर आ जाइए आप लोग !" वे सब लोग चढ़ गये और मेरे साथियों ने मुझे घूरा, जैसे किसी भंगी ने करपात्री स्वामी का दण्ड छू दिया हो, पर मेरे कपड़ों की सफ़ेदी उनके कण्ठ में भर-सी गयी। बाक़ी यात्री तटस्थ रहे, पर आनेवाले आपस में इतने ज़ोर-ज़ोर से बातें करने लगे कि किसी के लिए भी सोना असम्भव हो जाए।

मैं फिर अपनी चाँदनी में नहाने लगा, पर तभी मेरे मन में आया यह प्रश्न कि आज के मनुष्य का आकर्षण न प्रकृति में है, न मनुष्य में तो फिर किसमें है?

मेरे सामने थे उसी डिब्बे के पहले यात्री, जिनमें कुछ पढ़ते रहे गन्दी कहानियाँ, कुछ जासूसी उपन्यास, कुछ फूंकते रहे सिगरेट, कुछ करते रहे बकवाद और एक लिखता रहा अपना हिसाब ही हिसाब !

और मेरे सामने थे इसी डिब्बे के नये यात्री, जो इस चिन्ता से मुक्त थे कि दूसरों की नींद ख़राब न हो।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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