कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
चार
पात में पात और बात में बात, मुझे याद आ गया विद्यालय का सहपाठी शम्भू। किसी का पत्र आए, वह उसे पढ़ लेता। इधर से ताकता, उधर से झाँकता, आग पर सेंकता, पानी में भिगोता, ताला खोल लेता और चील-झपट्टा करता, पर पढ़ता ज़रूर। पेट का पतला, जो पढ़ता, सबसे गाता फिरता।
अकसर इसी धुन में डाकखाने पहुँच जाता, सबके पत्र ले आता, रास्ते में कहीं बैठकर सबको पढ़ता और फिर पत्र के साथ हर एक को नया रिमार्क देता। ये रिमार्क उसके चनाज़ोर गरम होते। किसी के पत्र में यदि होता कि उसकी माँ उसे याद करती है तो रिमार्क होता, “अबे तेरी मतारी स्यापा ले रही है, जाकर आँसू पोंछ आ।" यदि किसी विवाहित विद्यार्थी की पत्नी अपने पिता के घर चली गयी है तो रिमार्क होता, “अबे बछिया के ताऊ, तेरी जोरू मेरे साले के साथ भाग गयी।"
तंग आकर एक योजना बनी और कई पत्र ऐसे आये, जिनमें शम्भू की माँ-बहनों का स्तुतिगान ऐसे शब्दों में किया गया था कि शब्दालंकारों की बस प्रदर्शनी ही समझिए। शम्भू ने आदत के अनुसार ये पत्र भी खोले, पढ़े तो तबीयत तर हो गयी और उसने सबके सामने क़सम खा ली।
मैं सोच रहा हूँ कि चम्पालाल और शम्भू अपने अनन्त रूपों में सर्वत्र सलभ नहीं हैं? और हैं, जैसा कि है ही तो फिर आदमी की दिलचस्पी आदमी में कहाँ नहीं है?
हममें कितने हैं, जो किसी के खुले दरवाज़े के सामने से निकल जाएँ और पलक मारते भीतर की एक-एक चीज़ का सर्वेक्षण न कर लें?
गंगापर में चढे यात्री महावीरजी पर उतर रहे थे और मैं सोच रहा था मनुष्य का आकर्षण मनुष्य और जीवन की भिन्न-भिन्न दिशाओं में आज भी है, पर वह अस्वस्थ हो गया है और युग के प्रवाह में स्नान कर उसे स्वस्थ और स्वच्छ होना है।
चाँदनी खिल रही थी, खेल रही थी, बिखर रही थी, बरस रही थी और एक्सप्रेस दौड़ी जा रही थी राजधानी की ओर। मैंने एक बार पूरी तरह चाँदनी को आँखों में भरकर पलकों से पलकें मिला दीं।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में