कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
तभी कानों में एक सुई चुभ गयी, “लो टुन-टुन तो सुन ली पण्डितजी, अब इनसे कुछ गाना-वाना सुनवाओ।" यह उस मनहूस की आवाज़ थी, जिसके घर पर हम बैठे थे। मैंने कड़वी आँखों से उन्हें देखा तो वे दबे। तभी फूटे कलाकार के बोल और बस जड़ तारों की धुन से चैतन्य कण्ठ का स्वर मिल यों इठला उठा कि प्रकृति और पुरुष का युगल विहार कर रहा हो !
राग उठा, उभरा, इठलाया और अन्तरिक्ष में बिखरकर कलाकार के मानस में समा गया। ब्रह्मानन्द के माथे पर सरदी की उस ऋतु में भी श्रम-मोती झलक आये, सितार उन्होंने रख दिया।
एक-दो बीमार गलों से मरी-सी वाह-वाह निकली और शेष सब शान्त रहे, शान्त क्या, वे भी थक गये थे-अपने अज्ञान से, अज्ञान की प्रतिक्रिया से !
तभी एक आवाज़ आयी, “अच्छा साहब, अब दुलारे की भी एक चीज़ हो जाए !"
“ज़रूर-ज़रूर" यह मिला भरा-पूरा समर्थन !
दुलारा संकोच से दोहरा हो गया, “अजी, भला हंस के सामने काली चिड़िया की क्या बिसात, पण्डितजी से ही एक और चीज़ सुनिए !"
वह लाख संगीतज्ञ नहीं था पर कनरसिया तो था ही, चीज़ को समझता था, पहचानता था !
तक़ाजे ने ज़ोर पकड़ा, दुलारे के सामने जगह हो गयी और वह खखार ही रहा था कि किसी स्वयम्भू निर्देशक की वाणी सुन पड़ी, “हाँ दुलारे, ऐसी हो कि कलेजा चीरती चली जाए !''
दुलारे के बोल खिले-
उसने कहा तू कौन है मैंने कहा शैदा तेरा !
उसने कहा चाहता है क्या मैंने कहा सौदा तेरा !!
वाह-वाह से कमरा गूंज गया और इस तरह के रिमार्क भी-क्या कहने ! शैदा से सौदा क्या मिलाया है !
ब्रह्मानन्दजी ने एक राग और गाया, दुलारे की एक गज़ल और हुई और गोष्ठी ख़त्म।
चलते-चलते एक सज्जन मेरे कान में बोले, “तुम्हारे सितारजी को हमारे दुलारे ने पहले ही दाँव में उखाड़ दिया पण्डितजी !"
मैंने आँख फाड़कर उधर देखा, यह बैल बी. ए., एल-एल. बी. था !
हम इस तरह चुपचाप घर पहुँचे और सो गये कि तीनों ही कहीं पिट कर आये हों, पर प्रातः उठे ही थे कि दुलारे आ पहुँचा। अंगोछे में लपेटे फल उसने सामने रखे और ब्रह्मानन्दजी के पैर छूकर बोला, “इन लोगों के भाग से हमारे कानों में भी कल आपके बोल पड़ गये। पण्डितजी, मैं रात-भर नहीं सोया, आपकी आवाज़ मेरे भीतर गूंजती रही !''
मैंने उसे ज़रा गहराई में उतारा, “लेकिन वहाँ रात गाना तो तुम्हारा ही जमा दुलारे भाई !"
दुलारे ने आँखें बन्द कर दोनों हाथों से अपने कान पकड़े, जीभ बाहर निकाल दाँतों में दवायी और तब कहा, "राम राम, कहाँ गली की नाली, कहाँ मन्दिर का कलश, आप भी क्या बात कहते हैं !”
विद्वान् मूल् के बाद, यह एक मूर्ख विद्वान् का सम्पर्क था।
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
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- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
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- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
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- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
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- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
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