कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
दुलारे चला गया तो मुझे लगा कि गन्दे कमरे में झाडू देने के बाद अभी-अभी मैं मुँह-हाथ धोकर उठा हूँ !
तब की बात है, जब दिल्ली में लाल क़िले के सामने लाजपतराय मार्केट नहीं था और वहाँ आम जलसे हुआ करते थे।
उस दिन रात में उधर से निकला तो खुले आकाश के नीचे मुशायरा हो रहा था। ज़रीक़ा चोगा पहने कोई नवाब साहब सदर थे। हज़ारों आदमी बैठे थे और हज़ारों खड़े; जैसे जलसे की जी-जागती चारदीवारी हो यह !
मैं भी खड़ा हो गया और खड़ा होते ही मुझ तक जो कुछ आया, वह किसी शायर की तरन्नुम के लहरे से तर आवाज़ न थी, केवड़े के इत्र की मदमस्त खुशबू से भरा हवा का हलका झोंका था।
मेरे ठीक सामने एक नौजवान, चिनी हुई दुपल्ली टोपी और चिकन के कुरते में सजे हुए उनके कपड़े इत्र में बसे थे या वे स्वयं, मैं नहीं कह सकता, पर उनसे वहाँ का वातावरण महक रहा था, इसमें सन्देह नहीं।
तभी उन्होंने एक शेर पर बढ़कर दाद दी, “वाह, क्या शेर है; वल्लाह, ग़ालिब मरकर दोबारा ज़िन्दा हो गया है !"
चौंककर मैंने उनकी तरफ़ देखा और तब, “इस शेर की बारीक़ी क्या है भाई जान?' बोले, “अरबी-फ़ारसी अलफ़ाज (शब्दों) से शेर इस क़दर सक़ील (गरिष्ठ) हो गया है कि मानी गुम हैं !"
"तो फिर आपने दाद किस बात की दी?' मैंने पूछा तो तुनककर बोले, “अजब दहकानी (गँवारू) सवाल है आपका; अरे मियाँ, दाद देने से मुशायरे का समा बँधता है !"
तब तक शायर साहब अपना दूसरा शेर पूरा कर रहे थे। कुछ सुना, कुछ बे-सुना और पूरा-का-पूरा बे-समझा, पर मैंने उभरकर लम्बे हाथों दाद दी।
वे मेरी तरफ़ विजय-भरी आँखों से देखकर बोले, "फ़रमाइए जनाब, दाद से समा बँधता है या नहीं?"
मैंने कहा, “बेशक !'' और उन्होंने फ़ौरन मेरी तरफ़ पूरी तरह मुड़कर बड़े तपाक से हाथ मिलाया और मुझे अपनी बराबरी में ले लिया।
मैंने सोचा, मुशायरे का समा बँधे न बँधे, बातचीत का समा तो बँध ही गया !
लोकजीवन में एक कथा प्रचलित है कि वन की यात्रा में एक ऋषि को एक अमृतफल मिला। इसे कोई वन्ध्या भी खा ले तो पुत्रवती हो। ऋषि ने कृपालु हो, पास-पड़ोस की एक वन्ध्या जुलाही को वह फल दे दिया।
हाथ में फल लेकर जलाही बोली. “मेरे घर में इस फल से बेटा हो गया तो तुम्हें गाढ़े की एक चादर दूंगी ऋषिजी !''
उस दिन हम लोग एक कॉलेज के कवि-सम्मेलन में गये। कवि-सम्मेलन के बाद चाय-पानी हुआ। श्री रतनलाल ‘चातक' ने सभापतित्व किया था। कॉलेज के प्रिंसिपल उनसे बोले, "चातकजी, आप कविता को पढ़ते खूब हैं।"
चातकजी चूकनेवाले कहाँ? तड़ाक से बोले, “जी हाँ, कविता में तो कुछ होता नहीं, इसलिए गा-बजाकर ही आपको रिझा लेता हूँ !"
अट्टहासों से कमरा ऐसा गूंजा कि प्रिंसिपल साहब झक हो गये !
व्यक्ति के असाधारण गुणों को छोड़कर उसके साधारण गुण की कभी दाद मत दीजिए।
साधारण बात पर असाधारण दाद मत दीजिए,
असाधारण बात पर साधारण दाद मत दीजिए,
अपने को स्वयं कभी दाद मत दीजिए,
यहीं यह भी कि हमेशा नपी-तुली दाद दीजिए,
सही स्थान पर और सही रूप में दाद दीजिए,
और याद रखिए कि आपकी दाद एक तराजू है, जिस पर वही नहीं तुलता, जिसे आप दाद देते हैं, आप भी तुल जाते हैं !
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
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- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में