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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।


“यह सब क्या छौंक लगा रहे हो तुम?"

“छौंक-वौंक कुछ नहीं, बस गोली तैयार है और अब तुम भी तैयार हो जाओ। डरो मत, यह थ्री नाट थ्री नहीं है कि जागतों को सुला दे, यह वो गोली है जनाब, कि सोतों को जगा दे और जागतों को चला दे।"

"तो फिर जो होगा देखा जाएगा, चलाइए अपनी गोली, हम भी छाती खोले तैयार हैं।"

“जी, इस गोली में छाती खोलने की ज़रूरत नहीं पड़ती, क्योंकि तुलसीदास की यह गोली सीधे छाती पर नहीं पहुँचती, कानों की राह छाती में उतरती है।"

"तो यह बात है?"

“जी हाँ, यह बात है, अच्छा तो कान खोल लो, वह गोली आ रही है और गोली क्या है सन्त तुलसीदास का ज्ञानामृत है कि 'तुलसी भरोसे राम के रहो खाट पर सोय।'

“सुन लिया तुमने? अजी, सुन लिया तुमने? सन्त कवि तुलसीदास की क़िस्मत बड़ी है कि अक्ल के मामले में तुमसे इंच दो इंच आगे ही हैं। वे जीवन-विज्ञान का यह सार कह गये हैं कि भाई, झगड़े-झमेले में मत पड़ो और आराम से खाट पर पड़कर सोओ। अब बताओ कि अपनी कोठरी में खाट पर पड़ा मैं उनकी बात का आधा पालन तो कर ही रहा हूँ। फिर तुम इस तरह क्यों चिचिया रहे हो कि जैसे मैंने किसी की जेब काट ली हो और तुम कोई पुलिस इन्सपेक्टर हो !''

“भई, यह तो तुमने गज़ब की गोली खिलायी और इससे वाक़ई दिमाग के किवाड़ खुले जा रहे हैं, पर यह तो बताओ कि सचमुच तुलसीदास के दवाख़ाने की है या भले आदमी, घर में घोटकर उनका लेबिल लगा दिया है तुमने? आजकल यह मर्ज़ बुरी तरह बढ़ रहा है; कहीं छूत की इस झपेट में तुम भी तो नहीं आ गये?"

“जी नहीं, यह सौ-टका तुलसीदास की गोली है और देखते नहीं आप कि ऐसा विशाल अनुभव और है ही किसे, जो एक लाइन में सारी गीता कह दे?"

"अच्छा जी ! तो इस लाइन में सारी गीता कह दी गयी है? भाई, सच बात यह है कि तुम्हारी गोली से हमारे दिमाग के किवाड़ तो खुल गये हैं, पर कमरा अभी ख़ाली ही है।"

“घबराओ मत भाई जान, जब कमरा खुल गया है तो उसमें ज्ञान-पुरुष का पदार्पण भी होनेवाला ही है, और लो, होनेवाला क्या है, हो ही रहा है। तुलसीदास के इस हिन्दी वचन पर उर्दू के एक आलिम ने अपना तबसरा लिखा है। उसे तुम सुनो तो शायद सब कुछ ही पा जाओ। वह कहता है :

“एहसान नाखुदा का उठाये मेरी बला !
किश्ती ख़ुदा पे छोड़ दूं लंगर को तोड़ दूं।"

कुछ आया तुम्हारी समझ में या अब भी नासमझी का ही दौर-दौरा है? हाँ, तो लो अब तुम्हें अ आ इ ई की तरह ही पढ़ाना पड़ेगा। अरे भाई, लगन-मुहूर्त देखकर, साफ़-सुथरी मज़बूत नाव में बैठकर, अच्छे मौसम में मल्लाह की मदद से पार उतर जाना मामूली बात है और यह कोई भी कर सकता है। इस मामूली से ऊपर एक गैर मामूली-असाधारण बात यह है कि आदमी मल्लाह का भरोसा न करके अपनी ही ताक़त का भरोसा करे और पार उतर जाए, पर आलिम कहता है कि यह भी एक घटिया बात है, असली बात तो यह है कि मल्लाह से बात न करे, नाव के बारे में सोचना बन्द कर दे और नाव को पानी में उतारकर उसमें सो रहे; बस वही तुलसीदास का वचन "तुलसी भरोसे राम के रहो खाट पर सोय !" यानी खाट न सही, नाव सही, तुम खुर्राटों का मज़ा लो, डोलती-हिचकोलती नाव अपने-आप किनारे लगेगी और लगेगी क्या यों ही, लगाएगा लगाने वाला !"

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

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