आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान प्रयोजन और प्रयास ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान प्रयोजन और प्रयासश्रीराम शर्मा आचार्य
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प्रस्तुत है ब्रह्मवर्चस् का प्रयोजन और प्रयास
३-प्रयोगशाला एवं संदर्भ ग्रन्थालय
ब्रह्मवर्चस के प्रथम तल पर विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय को स्थापित करने
में सहायक तर्क-तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत कर सकने में समर्थ एक साधन सम्पन्न
प्रयोगशाला है। अपनेआप में अनूठे इस तंत्र से जुड़ी एक संदर्भ लाइब्रेरी है,
जिसमें ज्ञान-विज्ञान की देश-विदेश की सैकड़ों पत्रिकाएँ प्रतिमाह आती हैं,
भांति-भांति के विश्वकोष एवं संदर्भग्रंथ हैं।
जैसा कि सर्वविदित है, चेतना से सम्बन्धित विधा अध्यात्म कहलाती है। यह
चिरपुरातन है। इसके दो प्रमुख पक्ष हैं। दर्शन को भारतीय एवं पाश्चात्य,
योग-मीमांसादि षट्दर्शन, विचार विज्ञान से सम्बन्धित खण्डों में बाँटा जा
सकता है। सरलीकरण के लिए ईश्वर, जीव, प्रकृति की विवेचना करनेवाला
ज्ञान-कर्म-भक्ति के, योगत्रयपर आधारित प्रतिपादन दर्शन माना जा सकता है।
दर्शन स्वयं में एक विज्ञान है क्योंकि यह अकाट्य तर्कों एवं तथ्यों पर
आधारित है। प्रयोग पक्ष में तप-तितीक्षा, आहार-साधना, कल्प-प्रक्रियाएँ,
प्रायश्चित विधाएँ, ध्यान-धारणा, भाव-योग, तीर्थयात्रा एवं दान-पुण्य जैसे
संकल्पों को समाविष्ट किया जाता है। यदि दर्शन को 'ब्रह्म' तथा प्रयोग
व्यवहार को 'वर्चस्' कहा जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी। दोनों का युग्म ही
व्यक्ति को 'ब्रह्मवर्चस्' सिद्ध साधक बनाता है। समग्र अध्यात्म विद्या
के गुह्य रहस्यों का प्रकटीकरण 'थ्योरी एवं प्रैक्टिस' के मिलने पर ही बन
पड़ता है।
प्राचीनकाल की बात अलग थी, जबकि शास्त्रवचनों को श्रद्धा के सहारे स्वीकार कर
लिया जाता था। आज की स्थिति नितान्त भिन्न है। आप्तवचनों, वैदिक ऋषियों
द्वारा उद्धृत तथ्यों-दृश्य एवं अदृश्य जगत सम्बन्धी रहस्यों के बारे में
प्रत्यक्षवाद-बुद्धिवाद का कथन है कि इन्हें तर्क, तथ्य, प्रमाण अथवा
विज्ञान की कसौटी पर कसकर फिर मान्यता दी जाए। इससे कम में बीसवीं सदी
की नई पीढ़ी उच्चस्तरीय प्रतिपादन को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। विज्ञान
ने स्वयं कई स्थानों पर 'सपोज' (माना जाए कि) के सिद्धान्त को स्वीकृति देकर
अपना मार्ग सरल किया है, यहाँ तक कि मनोविज्ञान के क्षेत्र में फ्रायड
की पतनोन्मुख पशुप्रवृत्ति वाले सिद्धान्त तक को मान्यता दे दी गई;
किन्तु जब तत्त्वदर्शन-भारतीय अध्यात्म का प्रसंग आता है, तुरन्त प्रमाण
माँगे जाते हैं। समय की इस माँग को देखते हुए कि पदार्थ और चेतना के
मध्य ताल-मेल बिठाने, विज्ञान और अध्यात्म की दोनों शक्तियों के मध्य परस्पर
सात्विक सहयोग बनाने हेतु ब्रह्मवर्चस ने यह प्रचण्ड पुरुषार्थ
प्रारम्भ किया है। काम कठिन है, सरल नहीं। इसके लिए आधुनिक अन्वेषणों
के प्रकाश में उन भावनात्मक आधारों को मजबूत किया जाना है, जिन्हें अभी
तक जनमानस बड़ी श्रद्धा के साथ स्वीकार करता रहा है। इन प्रतिपादनों, अध्यात्म
अनुशासनों, आहार-विहार के नियमों, साधना अनुबन्धों के मूल में भौतिक विज्ञान
के भरपूर समावेश की पुष्टि की जानी है। यह सिद्ध किए बिना कोई इन उपचारों पर
विश्वास न करेगा और अश्रद्धावश करेगा भी तो लाभान्वित नहीं हो पायेगा।
इम अनास्था का दुष्परिणाम आज अनीति, अनाचार के रूप में देखा जा रहा है।
इस संकट का निवारण जिस एक मात्र उपाय-अवलम्बन से बन सकता था, उसे
ब्रह्मवर्चस ने गत वर्षों में अपने अथक प्रयासों से करके यह आश्वासन दिलाया
है कि यह असम्भव नहीं है।
संदर्भ ग्रन्थालय में सतत् अनुसंधानकर्त्ताओं की टीम अध्ययनरत रहकर यह जानने
का प्रयास करती है कि अध्यात्म विज्ञान के नाम पर प्रचलित मान्यताओं में से
कितनी तथ्यपूर्ण-युगानुकूल हैं, कितनी निरर्थक हैं। साथ ही संसार की अन्याय
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित मनीषी-वैज्ञानिकों के विचारों का मंथन कर पुरातन
एवं आधुनिक मनीषा द्वारा प्रस्तुत पक्ष-विपक्ष के अनुभवों एवं निष्कर्षों का
संग्रह किया जाता है। किन तथ्यों और प्रमाणों को मान्यता दी जाय एवं पुरातन
से उनकी संगति बिठाई जाय, इस विचार मंथन का निष्कर्ष प्रयोग-परीक्षणों से
तालमेल बिठाते हुए मिशन की तीनों पत्रिकाओं अखण्ड ज्योति, युग निर्माण योजना,
युग शक्ति गायत्री में समय-समय पर प्रकाशित किया जाता है।
प्रयोग-अनुसंधान, ब्रह्मवर्चस की सर्वांगपूर्ण शोध का यह प्रत्यक्ष रूप है।
प्रयोगशालाएँ विश्व में अनेकानेक हैं। प्रत्येक के अपने-अपने विषय हैं।
कम्प्यूटर टेक्नालॉजी ने आज अनुसंधान प्रक्रिया को शिखर पर पहुँचा दिया है।
आयुध विज्ञान से लेकर अन्तरिक्ष भौतिकी एवं काया के प्रयोग-परीक्षण की आज
अत्याधुनिक मशीनें उपलब्ध हैं। ब्रह्मवर्चस की प्रयोगशाला अपने प्रयास में
एकाकी कही जा सकती है, जबकि उपकरणों की दृष्टि से वह इतनी सम्पन नहीं है।
तथापि अपने ही देश में उपलब्ध आधुनिक उपकरणों, कम्प्यूटर एवं
इलेक्ट्रॉनिक्स के विभिन्न विधाओं से सम्बन्धित यंत्रों के द्वारा जो
प्रयोग-परीक्षण का क्रम आरम्भ किया गया है, उससे-सम्भावनाएँ बड़ी उज्ज्वल नजर
आती हैं।
ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की मान्यता है कि मानव शरीर और मस्तिष्क, ऐसे
प्रकृति विनिर्मित यंत्र हैं, जिनमें मनुष्यकृत समस्त अपकरणों की क्षमता
विद्यमान है। सूक्ष्म शरीर की इतनी रहस्यमयी परतें हैं, जिनके तारतम्य बिठाते
हुए प्रकृति के समस्त रहस्यों को समझने तथा शक्तियों को उपयुक्त मात्रा में
उपलब्ध करने का सुयोग बैठ सके, यह पर्यवेक्षण जिन साधनाओं के आधार पर किया जा
सकता है, उनका सही रूप में प्रयोग परीक्षण करने का प्रयास ब्रह्मवर्चस
की शोध-प्रक्रिया के अन्तर्गत चल रहा है।
अध्यात्म और विज्ञान की समन्वित शोध के लिए अनेक दिशा धाराओं में प्रवेश करने
और गहरे गोते लगाने की आवश्यकता है। इनमें से अपनी सामर्थ्य और रुचि के
अनुरूप, कुछ विषयों को ब्रह्मवर्चस ने अपने प्रयोग-परीक्षण में सम्मिलित किया
है। यह तात्कालिक उपक्रम है। अपनाये गये क्रियाकलापों को अगले दिनों और भी
अधिक आगे बढ़ना है। एक-एक करके सभी धाराओं को और अधिक विस्तृत किया जा रहा है।
इन दिनों औषधीय जड़ी-बूटियों की सूक्ष्म शक्ति के-शरीर, मन, वातावरण,
प्राणिजगत् एवं वनस्पतियों पर होने वाले प्रभावों को प्राथमिकता दी गयी है।
वनस्पतियों को वाष्पीभूत करके उनके द्वारा किस प्रकार, कैसी चमत्कारी
परिणतियाँ हस्तगत की जाती हैं, यह तथ्य सर्वप्रथम हाथ में लिया गया है। इस
दिशाधारा को अग्निहोत्र से चिकित्सा-''यज्ञोपैथी'' नाम दिया गया है। इस विषय
में अब तक बहुत कुछ खोजा-अपनाया जा सका है। आशा की जानी चाहिए कि अगले दिनों
और भी अधिक उत्साहवर्धक उपलब्धियाँ हस्तगत करने का अवसर हाथ लगेगा। इन्हीं
वनौषधियों का सूक्ष्मीकरण-खरलीकरण करके चूर्ण रूप में एवं क्वाथ बनाकर
शारीरिक जीवनीशक्ति बढ़ाने में उनकी प्रभाव क्षमता का भी अध्ययन किया जा रहा
है। एक संपूर्ण विश्वविद्यालय स्तर की स्थापना इस प्रक्रिया के अन्तर्गत
शान्तिकुञ्ज परिसर में की जा रही है, जहाँ आधुनिकतम अनुसंधानों द्वारा
आयुर्वेद को विज्ञानसम्मत सिद्ध करने का प्रयास किया जाएगा।
प्रस्तुत शोध का दूसरा पक्ष है-''शब्दशक्ति''। इसे अध्यात्म क्षेत्र में
मंत्रशक्ति कहा जाता है। यह स्वर विज्ञान की, उच्चारण की विद्या है।
पुराने सूत्र हाथ न लगने तक, इसे संगीत के प्रभाव के रूप में भी शोध का विषय
बनाया जा सकता है, वह बनाया भी गया है। दीपक राग गाकर बुझे दीपक जलाने और मेघ
मल्हार गाकर वर्षा करने जैसे सिद्धान्त तो हाथ लगे नहीं हैं पर इतना तो
अवश्य सम्भव हो सका है कि संगीत को, नादब्रह्म स्तर पर सर्वोपयोगी सिद्ध करने
की संभावना उभारी जा सके। शारीरिक व्याधियों-मानसिक आधियों को संगीत
ठीक करता है। वह प्राणिजगत्-वनस्पति जगत् पर भी अपना असाधारण प्रभाव
छोड़ता है। सप्त स्वरों को सप्त लोक कहा गया है। उन्हीं को सप्तप्राण या सप्त
चक्रों का जीवनदाता भी कहा गया है। अगले दिनों इस आधार पर प्रामाणिक
माध्यम से भी, गायकों की स्थिति में पहुँचकर, मंत्र-विद्या की रहस्यमयी
परतों को खोला जा सकेगा। पर अभी तो विशिष्ट संगीत के उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण
प्रभावों का ही आँकलन हो सकता है। ये उपलब्धियाँ भी मानव जीवन को
सुखी-समुन्नत बनाने में कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं।
ब्रह्मवर्चस का तीसरा प्रयोग ध्यान-प्रक्रिया पर है। प्रकारान्तर से इसे
विचार-शक्ति का ही उच्चस्तरीय प्रभाव समझा जा सकता है। विचारों का
बिखराव दूर करके, उन्हें एक केन्द्र पर समाहित कर लेने की विद्या ही
ध्यान है। इसे साधना-क्षेत्र का प्राण कहा गया है। प्रस्तुत अन्वेषण
में देखा गया है कि किस प्रकार के ध्यान, चेतना-क्षेत्र पर क्या प्रभाव डालते
हैं? शरीर को सुविकसित बनाने, मनोबल बढ़ाने, बुद्धि-क्षेत्र को अधिक
प्रखर करने में इस विद्या का क्या योगदान हो सकता है?
यह सार संक्षेप में उन प्रसंगों का परिचय है, जो ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान
द्वारा हाथ में लिये गये हैं और लक्ष्य की दिशा में क्रमश: आगे बढ़ते हुए,
चमत्कारी परिणामों की सफलतायें प्रस्तुत कर रहे हैं। इस कार्य के लिए एम.डी.,
एम.एस, स्तर के चिकित्सा-विज्ञानी तथा भौतिकी, रसायन-शास्त्र, जीव-विज्ञान,
दर्शन आदि विषयों के पोस्ट ग्रेजुएट स्तर के विद्वान, वैज्ञानिक, मनीषी,
अनवरत शोध प्रयासों में निरत रहते हैं। आगे लक्ष्य यह है कि एक-एक करके
अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय हेतु, सभी आवश्यक प्रसंगों को प्रस्तुत शोध
योजना में सम्मिलित किया जाता रहे। इस प्रकार उस केन्द्र पर पहुँचा जा सकेगा
जहाँ, अध्यात्म और विज्ञान एक-दूसरे के प्रतिद्वन्दी न बनकर परस्पर सहयोगी,
पूरक और प्रगति में समान भागीदार बनकर रहेंगे।
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