आचार्य श्रीराम शर्मा >> महिला जागृति अभियान महिला जागृति अभियानश्रीराम शर्मा आचार्य
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महिला जागृति अभियान...
नारी-अवमूल्यन को रोका जाए
बच्चों के पेट में रखने के लिए तो नारी-समाज ही विवश है, पर अब यह माँग संसार भर में उठ रही है किउनके पालन-पोषण में पिता की भी उपयुक्त भागीदारी होनी चाहिए और उन्हें भी दुलार देने, खेल खिलाने, समस्याओं को निपटाने तथा सुसंस्कारी बनाने मेंअपना समय नियमित रूप से लगाना चाहिए भले ही वह आर्थिक अथवा किसी और दृष्टि से कितना ही मूल्यवान क्यों न हो! अभी कुछ ही महीनों पूर्व स्वीडन सरकारतथा समाज ने यह निर्धारण किया है कि जिस प्रकार महिलाओं को प्रसूति के अवसर पर नौकरियों से छुट्टी लेनी पड़ती है, उसी प्रकार पुरुष भी बच्चों केपालन-पोषण में अपनी सहभागी स्तर की जिम्मेदारी उठाएँ और छुट्टी लेकर बच्चों के साथ रहें।'' पुरुषों द्वारा इस पर आपत्ति की गई कि इससे उनकेअनुभव में कमी पड़ने से पदोन्नति रुकेगी तथा प्रतिस्पर्द्धाओं में बैठकर ऊँचा पद पाने में असमर्थ रहेंगे।'' यह ऐतराज इस आधार पर रद्द कर दिया गयाकि यही तर्क महिलाएँ भी तो दे सकती हैं। उन्हें भी तो घाटा उठाना और कष्ट सहना पड़ता है। संतानोत्पादन में पुरुष भी उतना ही उत्साह दिखाता है तो फिरइस कृत्य के फलितार्थों से निबटने में क्यों अपनी जिम्मेदारी से पल्ला छुड़ाकर भागने का प्रयत्न करना चाहिए? कानून पास हो जाने से अब उसका दबावपुरुषों पर भी पड़ेगा। अब तक दंड भुगतने के लिए अकेले नारी को ही बाध्य किया जाता रहा है, अब पुरुषों को भी नफे में ही नहीं, नुकसान में भीसहभागी रहने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। आरंभ भले ही स्वीडन से हुआ हो, पर उसका विस्तार सभी जगह होगा। सूरज भले पर्वत शिखर पर से उगता दिखाई पड़े, परउसका प्रकाश क्रमशः समस्त संसार पर हो जाएगा। जापान में राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के उत्साहपूर्वक बाजी मारने का प्रभाव भारत पर पड़ा है औरउन्हें 30 प्रतिशत स्थान सुरक्षित करा लेने का अवसर मिला है। अब यह प्रचलन आगे बढ़ेगा और महिलाओं को हेय मानने, त्रास देने, व असमानता के भेदभावबरतने का प्रचलन क्रमशः संसार के सभी भागों से हटता चला जाएगा, भले ही इससे इच्छित लाभ उठाने के लिए कई तर्क प्रस्तुत करते रहने वालों कोकुड़कुड़ाते ही क्यों न रहना पड़े, उनका विरोध नियति के अभिनव निर्माण के सामने टिक न सकेगा।
जो होकर ही रहना है, उसके साथ टकराने की अपेक्षा लाभ इसी में है कि समय से पूर्व समझौताकरके अपनी सदाशयता की कुछ पहचान तो छोड़ ही दी जाए। अंगरेजों ने बदलते समय को भाँप लिया था, इसलिए उलटी लातें खाकर खदेड़े जाने का कटु प्रसंग उपस्थितनहीं होने दिया और समझौते की नीति अपनाकर विदाई के दिनों कटुता के स्थान पर सद्भावना सहित वापास गए। अस्तु भारत अभी तक स्वेच्छापूर्वक राष्ट्रमंडलका सदस्य बना हुआ है।
हरिजनों-आदिवासियों को आरक्षण एवं विशेष सुविधाएँ देकर समय रहते समानता का अधिकार स्वीकार करलिया गया है। गलतियों का प्रायश्चित्त हो रहा है। यदि इस सद्भावना का परिचय न दिया गया होता, तो निश्चय ही संसार में बह रही विकास की हवाउन्हें उत्तेजित किए बिना न रहती। जो परिवर्तन इन दिनों अच्छे वातावरण में हो रहा है, उसी के लिए दुराग्रह पर अड़े रहने से अपेक्षाकृत कहीं अधिक घाटेका सामना करना पड़ता। महिलाओं के प्रति भी पुरुषवर्ग द्वारा समय रहते न्यायोचित अधिकारों की माँग को मान्यता दे दी जाती है तो इसमें दोनों हीपक्ष नफे में रहेंगे, अन्यथा विग्रह की टकराव भरी स्थिति आने तक बात बढ़ जाए तो फिर भूल सुधारने में देर लग जाएगी। संसार में ऐसे भी बहुत क्षेत्रहैं, जहाँ नारी-प्रधान समाज-व्यवस्था चल रही है। वहाँ समूचे अधिकार महिलाओं के ही हाथ में रहते हैं। नर को तो अपनी विवशता के कारण उनकाआज्ञाकारी-अनुवर्ती मात्र बनकर रहना पड़ता है। अच्छा हो कि ऐसा आमूल-चूल परिवर्तन का सामना अपने समाज को न करना पड़े। पिछली शताब्दी में अगणितराजनीतिक, सामाजिक एवं बौद्धिक क्रांतियाँ हुई हैं। उनमें जीती तो यथार्थता और न्याय-निष्ठा ही है, पर वह उथल-पुथल ऐसे घटनाक्रमों का इतिहासअपने पीछे छोड़ गई है, जिनको स्मरण करके रोमांच हो आता है। घृणा-द्वेष के भाव अभी तक भी विचारवानों के कान में यथावत् बने हुए हैं और पराजितों केप्रति सहानुभूति होने की अपेक्षा तिरस्कार भरी प्रतिक्रिया ही व्यक्त की जाती रहती है। वैसे दुर्दिन हम सबको न देखने पड़ें, इसी में समझदारी है।समता और एकता का अटल परिवर्तन किसी के रोके रुकने वाला तो है नहीं, अधिक-से-अधिक इतना हो सकता है कि भवितव्यता को चरितार्थ होने में समय लगे।
नारी समस्या के पीछे अनीतिमूलक दुर्भावनाओं का अहंकारी मानस ही प्रमुख बाधा बना हुआ है।यदि औचित्य को अपना लिया जाए और लाभ-हानि का सही आंकलन कर लिया जाए तो प्रतीत होगा कि संघर्ष में उलझने की अपेक्षा सहयोग की नीति अपनाना अधिकश्रेयस्कर है। उठने में सहायता देकर एहसान जताने और कृतज्ञता भरी सद्भावना उपलब्ध करने में लाभ-ही-लाभ है। इस लाभ को इन दिनों के सुअवसर पर उठाया नजा सका, तो समय निकल जाने पर अपेक्षाकृत कहीं अधिक घाटा सहन करना पड़ेगा। समता और एकता के सिद्धांत संसार भर के दुखी समाज को अपना लिए जाने के लिएबाध्य कर रहे हैं। यह हो ही नहीं सकता कि आधी जनसंख्या नारी को उस महान परिवर्तन से विलग रखने के कोई प्रयत्न देर तक सफल होते रहें। सामंतवाद चलागया। अब सामाजिक सामंतवाद की विदाई की वेला भी आ ही पहुँची है। उसे वापस नहीं लौटाया जा सकता।
उपयुक्त यही होगा कि भारत के जिस अहिंसक सत्याग्रह का समर्थन देश की पूरी जनता ने कियाऔर असंभव दीखने वाले नागपाश से छूटने में सफलता प्राप्त कर ली, अब उसी का उत्तरार्द्ध सामाजिक क्रांति के रूप में उभरना चाहिए। न्याय को मान्यतादिलाने में भी उसी रीति-नीति को अपनाया जाए जो सत्याग्रह के दिनों समूचे देश में ही नहीं, संसार भर में उभर आई थी। नारी-मुक्ति आंदोलन पाश्चात्यदेशों में कटुता भरे वातावरण में संघर्ष और प्रतिशोध के रूप में उभर रहा है। अच्छा हो कि वे टकराव से बचें और समझौतावादी उदारता अपनाने भर से कठिनदीखने वाला मोरचा सुलह-सफाई के वातावरण में ही निपट जाए।
इसके लिए मात्र भ्रांतियों का निराकरण ही वह कार्य है, जिससे कायाकल्प जैसा सुखद-सुयोगसहज ही हस्तगत हो सकता है। यह स्वीकार कर ही लिया जाना चाहिए कि नर और नारी, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एकता और सद्भावना के वातावरणमें ही उनके बीच सहकारिता विकसित हो सकती है और अक्षुण्ण बनी रह सकती है। लड़के-लड़की के बीच, कन्या और वधू के बीच बरता जाने वाला पक्षपातपूर्णभेदभाव अब पूरी तरह समाप्त होना ही चाहिए। दोनों को दो हाथ, दो पैर, दो आँख और दो कान की तरह परस्पर सहयोगी और समान महत्त्व पाने के अधिकारीमानकर चलने में ही समझदारी है।
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