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आचार्य श्रीराम शर्मा >> महिला जागृति अभियान

महिला जागृति अभियान

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4231
आईएसबीएन :0000

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महिला जागृति अभियान...

दांपत्य की गरिमा भुलाई न जाए


जिस पति के साथ विवाह के रूप में ग्रंथि-बंधन और पाणिग्रहण संस्कार संपन्न हुआ है,  उसकासहज उत्तरदायित्व बनता है कि पत्नी को कम-से-कम अपनी योग्यता के स्तरतक  पहुँचाने के लिए प्राणपण से प्रयत्न करे ही। यदि उसकी ओर सेउपेक्षा बरती जाती है तो उसके विवाह को अपहरण के अतिरिक्त और क्या कहा जाएगा?

विवाह से कामुकता की आग बुझाने का कानूनी अधिकार भले ही मिल जाता है, पर नैतिकता केकठोर अनुबंध इस दिशा में उदासीनता न बरतने के लिए फिर भी बाध्य करते रहते हैं।  कामाचार का सीधा प्रतिफल है-संतानोत्पादन। किसी जमाने मेंजब पशु चराने और लकड़ी  बीनने का काम बचपन में ही बालकों को सोप दिया जाता था, तब वे परिवार के लिए आर्थिक रूप से भार नहीं बनते थे, पर अबतो उनका सभ्यजनों की तरह लालन-पालन करना, उनके लिए शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था बनाना, खेलने आदि के लिए घरों में खुले स्थान होना आदि ऐसे कितने ही नए प्रश्न संतानोत्पादन के साथ जुड़े हैं, जिनका इस घोर महँगाई के जमाने में निभा सकना एक प्रकार से दुस्साहस जैसा ही है। अंधोंकी तरह कामुकता के क्षेत्र में बिना परिणाम सोचे उड़ानें भरने लगना एक प्रकार से अपनी आर्थिक स्थिति पर व पत्नी के स्वास्थ्य पर, बच्चों केभविष्य पर कुठाराघात करने के समान है। नया आगंतुक संयुक्त परिवार के  सदस्यों की सुविधाओं में कटौती करता है। विपन्न परिस्थितियोंमें पला हुआ बालक अपने  लिए अभिभावकों के लिए और समस्त संसार के लिए अभिशाप बनकर ही रह सकता है। इन तथ्यों के विपरीत विवाह होने के दिन सेही प्रतीक्षा की जाने लगती है कि संतानोत्पादन का समय आने में देर न लगे। ऐसी मान्यताओं को अदूरदर्शिता और घोर प्रतिगामिता के अतिरिक्त और क्या कहाजाए?

विवाह तब होना चाहिए जब दोनों एक-दूसरे को सहमत कर सकने और आगे बढ़ाने के लिए समुचितयोगदान दे सकने की स्थिति पर विचार कर चुके हों। यदि विवाह से पूर्व ऐसा नहीं बन पड़ा हो, तो किसी भी दंपत्ति को संतानोत्पादन को नई और भारी-भरकमजिम्मेदारी  सँभालने से पहले ही उस कमी की पूर्ति कर लेनी चाहिए। जितना समय, धन और मनोयोग संतान के लिए लगाया जाता है, उतना कष्टसहन यदिपति-पत्नी एक-दूसरे के दायित्व के लिए करते रहें, तो उसे हर दृष्टि से कहीं अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण माना जाएगा। प्रगति-क्रम आजीवन चलता रह सके औरइसके लिए पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए पूरी तरह समर्पित रहें, यह  मानवीय गरिमा को शोभायमान रखने वाली नीतिमत्ता है। इसमें सबसे बड़ी बाधास्वच्छंद  यौनाचार की है, जिसके फलस्वरूप दोनों एक-दूसरे को शारीरिक तथा मानसिक रूप से रुग्ण  बनाते हैं और बेवजह असाधारणभार वहन की अनीति अपनाते हैं, जो नहीं ही अपनाई जानी  चाहिए।

विकृत मान्यताओं में एक अति भयंकर अनौचित्य यह घुसा है कि कामुकता के कुचक्र में शरीर औरचिंतन को बेतरह उलझा लिया जाए तथा बड़े होने पर भी अपनी क्षमताओं को बच्चों के फुलझड़ी जलाने के खिलवाड़ की तरह नष्ट करके मनचलेपन का परिचय दिया,हानि-लाभ पर कुछ भी विचार न किया जाए। कामुकता की शारीरिक क्षति की चर्चा तो ब्रह्मचर्य-विवेचना के संबंध में होती भी रहती है। फिर यह किसी कोस्मरण भी नहीं आता कि अश्लील चिंतन से मानसिक क्षमताओं का किस प्रकार सर्वनाश होता है तथा इस दुश्चिंतन में उलझा हुआ  मस्तिष्क कुछउच्चस्तरीय चिंतन कर सकने और बौद्धिक प्रतिभा के प्रदर्शन में सक्षम ही नहीं रहता।

नशेबाजी की कुटेव के उपरांत आत्मघात के लिए प्रेरित करने वाली कामुकता ही है। इसी नेनारी के प्रति पूज्यभाव रखने और उसके उत्कर्ष में सहायता दे सकने वाली सदाशयता को बुरी तरह छिन्न-भिन्न किया है। इस दिशा में बढ़ते हुए उत्साह कीउड़ान को रोका न गया तो उससे नारी पर तो वज्रपात होता ही रहेगा, बचेगा वह भी नहीं, जिसने इस दिशा में उत्साह दिखाया और सरंजाम जुटाया है। जीवनीशक्ति को निचोड़कर नाली में बहा देना, इतना अबुद्धिमत्तापूर्ण है कि उसमें असाधारण अभिरुचि लेने वाले को आत्मघाती के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जासकता।

नर और नारी के बीच भाई-भाई जैसा व बहन-बहन जैसा सहयोगी रिश्ता रहना चाहिए। संतानोत्पादनकी जब अनिवार्य आवश्यकता सूझ पड़े, तभी उस खौलते पानी में हाथ डालना चाहिए। विश्व एवं समाज की स्थिति को देखते हुए स्पष्ट होता है कि इन दिनों तोबढ़ती जनसंख्या का अभिशाप ही अकेला ऐसा है, जिससे हर क्षेत्र में इतनी समस्याएँ कठिनाइयों और विपत्तियाँ बढ़ती जाती हैं, जिनके कारण संतुलनबैठाने के लिए प्रगति के कोई भी प्रयास संतोषजनक रीति से सफल हो नहीं पा रहे हैं। अच्छा होता, यदि अपना, साथी का परिवार का व समाज की स्थिति कापर्यवेक्षण करते हुए बीसवीं सदी के इन अंतिम वर्षों में तो प्रजनन  को एक प्रकार से पूर्ण विराम दे दिया जाए और इक्कीसवींसदी के लिए वैसी स्थिति बनाई जाए, जिससे विभीषिकाओं से जूझने की अपेक्षा प्रगति का सरंजाम जुटाने के लिए उपलब्ध साधनों को लगाया जा सकना संभव होसके। कामुकता के प्रति असाधारण उत्साह कभी क्षम्य रहा होगा, पर अब तो उस दुश्चिंतन को यथावत् अपनाए रहने पर खतरे-ही-खतरे हैं- आतिशबाजी के खेलखेलने की तरह उस रुझान पर भी समय रहते अंकुश प्राप्त कर लिया  जाए। नारी-उत्कर्ष के संदर्भ में तो इस परिमार्जन को एक महती आवश्यकता कीतरह ही हर किसी को हृदयंगम करना चाहिए। स्त्रियाँ इस कोल्हू में पिसने से बचने की राहत पाने पर  अपनी उन क्षमताओं को कार्यान्वित करसकेंगी, जिनके आधार पर उनकी नवयुग में महती भूमिका हो सकती है। नर-नारी के बीच अश्लीलता की गंध नहीं आने देनी चाहिए, वरन उस सघन सहकारिता को विकसितकरना चाहिए, जिससे आत्मीयता, आदर्शवादिता और पारस्परिक सेवा-साधना का सुयोग बन सकता है। सामर्थ्यों को बचाकर उन्हें लोकहित के कार्यों मेंलगाया जा सकता है, जिनकी कि इस नवयुग के अवतरण में असाधारण आवश्यकता है।

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