आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर सुनसान के सहचरश्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर....
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गोमुख के दर्शन
अज माता गंगा के मूल उद्गम को देखने की चिर अभिलाषा पूरी हई। गोत्री तकपहुँचने में जितना कठिन मार्ग मिला था, उससे कहीं अधिक र्गम यह गंगोत्री से गोमुख तक अठारह मील का टुकड़ा है। गंगोत्री क के रास्ते में जब वहटूट-फूट होती है तो सरकारी सड़क विभाग के कर्मचारी ठीक करते रहते हैं, पर इस उपेक्षित मार्ग को जिसमें बहुतकम लोग ही कभी-कभी जाते हैं, कौन सुधारे।पर्वती मार्गों का हर सालगड़ना ही ठहरा। यदि एक-दो वर्ष उनकी उपेक्षा रहे तो वे काफी जटिन्हो जाते हैं। कई जगह तो रास्ते ऐसे टूट गए थे कि वहाँ सेगुजरना जीवके साथ जुआ खेलने के समान था। एक पैर फिसलने की देर थी कि जैन का अन्त ही समझना चाहिए।
जिस हिमस्तूप (ग्लेशियर) से गंगा की छोटी-सी धारा निकली है, वह नीले रंग कीहै। माता का यह उद्गम हिमाच्छादित गिरि श्रृंगों से बहुत शोभनीय प्रतीत होता है। धारा का दर्शन एक साधारण से झरने के रूप में होता है। वह है तोपतली-सी ही पर वेग बहुत है। कहते हैं। कि यधारा कैलाश से-शिवजी की जटाओं से आती है। कैलाश से गंगोत्री तक का सैकड़ों मील का रास्ता गंगा भीतर पारकरती है और उसे करोड़ों टन ग्लेशियर का दबाव सहन करना पड़ता है, इसी से धारा इतनी तीव्र निकली है। जो हो भावुक हृदय के लिए यह धारा ऐसी ही लगतीहै, मानो माता की छाती से दूध की धारा निकलती है। उसे पान करके इसी में निमग्न हो जाने की एक ऐसी ही हूक उठती है, जैसी कि गंगा लहरी के रचियताजगन्नाथ मिश्र के मन में उठी थी और स्वरचित गंगा लहरी के एक-एक श्लोक का गान करते हुए एक-एक कदम उठाते और अन्तिम श्लोक गाते हुए भावावेश में माताकी गोद में ही विलीन हो गए। कहते हैं कि स्वामी रामतीर्थ भी ऐसे ही भावावेश में गंगा में कूद पड़े थे और जल समाधि ले लिये।
अपनी हूक मैंने पान और स्नान से ही शान्त की। रास्ते भर उमंगें और भावनाएँ भीगंगाजल की भाँति हिलोरें लेती रहीं। अनेक विचार आते और जाते रहे। इस समय एक महत्त्वपूर्ण विचार मन में आया। उसे लिपिबद्ध करने का लोभ संवरण न करसका। इसलिए उसे लिख ही रहा हूँ।
सोचता हूँ कि यहाँ गोमुख में गंगा एक नन्हीं सी पतली धारा मात्र है। रास्ते मेंहजारों झरने, नाले और नदी उसमें मिलते गए हैं। उनमें से कई तो गंगा की मूलधारा से कईयों गुने अधिक बड़े हैं, उन सबके संयोग से ही गंगा इतनी बड़ीऔर चौड़ी हुई है, जितनी कि हरिद्वार, कानपुर, प्रयाग आदि में दिखाई पड़ती है। उसमें से बड़ी-बड़ी नहरें निकल गयी हैं। गोमुख के उद्गम का पानी तोउनमें से एक नहर के लिए भी पर्याप्त नहीं हो सकता, यदि कोई नदी-नाले रास्ते में न मिलें तो सम्भवत: सौ-पचास मील की मिट्टी ही उसे सोख ले औरआगे बढ़ने का अवसर ही न रहे। गंगा महान् है, अवश्य ही महान् है, क्योंकि वह नदी-नालों को अपने स्नेह बन्धन में बाँध सकने में समर्थ हुई। उसने अपनीउदारता का आँचल फैलाया और छोटे-छोटे झरने-नालों को भी अपने बाहपाश में आबद्ध करके छाती से चिपटाती चली गई। उसने गुण-दोषों की परवाह किए।
बिना सभी को अपने उदार आँचल में स्थान दिया। जिसके अन्दर में आत्मीयता की,स्नेह-सौजन्य की अगाध मात्रा भरी पड़ी है, उसे जलराशि में कमी कैसे पड़ सकती है? दीपक जब स्वयं जलता है, तो पतंगे भी उस पर जलने को तैयार हो जातेहैं। गंगा जब परमार्थ के उद्देश्य से संसार में शीतलता फैलाने निकली है, तो क्यों न नदी- नाले भी उसकी आत्मा में अपनी आहुति देंगे। गान्धी, बुद्ध,ईसा की आत्माओं में कितनी आत्माएँ आज अपने को आत्मसात कर चुकी हैं, यह सभी को स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है।
गंगा की सतह सबसे नीची है, इसलिए नदी-नालों का गिर सकना सम्भव हुआ। यदि उसनेअपने को नीचा न बनाया होता, सबसे ऊपर उठकर चलती, अपना स्तर ऊँचा रखती, तो फिर नदी-नाले तच्छ होते हुए भी उसके अहंकार को सहन न करते, उससे ईष्र्याकरते और अपना मुख दूसरी ओर मोड़ लेते। नदी-नालो की उदारता है सही, उनका त्याग प्रशंसनीय है, सही पर उन्हें इस उदारता और त्याग को चरितार्थ करनेका अवसर गंगा ने अपने को नम्र बनाकर, नीचे स्तर पर रखकर ही दिया है। अन्य अनेकों महत्ताएँ गंगा की हैं, पर यह एक महत्ता ही उसकी इतनी बड़ी है किजितना भी अभिनन्दन किया जाय कम है।
नदी-नदों ने, झरने और सरस्रोतों ने भी अपना अलग अस्तित्व कायम न रखने की अपनीव्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं और कीर्ति स्थापित करने की लालसा को दमन करने की दूरदर्शिता की है, वे भी सर्वथा अभिनन्दनीय हैं। उनने अपने को खोकरगंगा की क्षमता महत्ता और कीर्ति बढ़ाई। सामूहिकता का, एकत्रीकरण का, मिल-जुलकर काम करने का महत्त्व समझा, इसके लिए उनकी जितनी प्रशंसा की जायकम है। संगठन में ही शक्ति है, यह उन्होंने वाणी से नहीं, मन से नहीं, प्रत्यक्ष क्रिया से कर दिखाया। कर्म वीरता इसे ही कहते हैं। आत्म-त्यागके इस अनुपम आदर्श में जितनी महानता है, उतनी ही दूरदर्शिता भी है। यदि वे अपना अलग अस्तित्व बनाए रहने पर अड़े रहते, सोचते जो मेरी
क्षमता है, उसका यश मुझे ही मिलना चाहिए और गंगा में मिलने से इन्कार कर देते, तोअवश्य ही उनका अपना अस्तित्व भी अलग रहता और नाम भी; पर वह होता इतना छोटा कि उसे उपेक्षणीय और नगण्य ही माना जाता। उस दशा में उस जल को गंगा जल कोईनहीं कहता, उसे चरणों और सिर पर चढ़ाने को कोई लालायित न रहता।
गोमुख पर आज जिस पुनीत जल की धारा में माता गंगा का दर्शन-मज्जन मैंने किया, वहतो उद्गम मात्र था, पूरी गंगा तो सहस्रों नदी-नालों के संगठन से सामूहिकता का कार्यक्रम लेकर चलने पर बनी है। गंगा सागर ने उसी का स्वागत किया, सारीदुनियाँ उसी को पूजती है। गौ मुख की तलाश में तो मुझ जैसे चन्द आदमी ही पहुँच पाते हैं।
गंगा और नदी-नालों के सम्मिश्रण के महान् परिणाम यदि सर्वसाधारण के नेता औरअनुयायियों की समझ में आ जाएँ, लोग सामूहिकता - सामाजिकता के महत्त्व को हृदयंगम कर सकें, तो एक ऐसी ही पवित्र पापनाशिनी, लोकतारिणी संघशक्ति काप्रादुर्भाव हो सकता है, जैसा गंगा का हुआ।
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