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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर

सुनसान के सहचर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4257
आईएसबीएन :00000

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सुनसान के सहचर....

3

चाँदी के पहाड़


आज सुक्की चट्टी पर धर्मशाला के ऊपर की मंजिल की कोठरी में ठहरे थे, सामने हीबर्फ से ढकी पर्वत की चोटी दिखाई पड़ रही थी। बर्फ पिघल कर धीरे-धीरे पानी का रूप धारण कर रही थी, वह झरने के रूप में नीचे की तरफ बह रही थी। कुछबर्फ पूरी तरह गलने से पहले ही पानी के साथ मिलकर बहने लगती थी, इसलिए दूर से झरना ऐसा लगता था, मानो फेनदार दूध ऊपर बढ़ता चला आ रहा हो। दृश्य बहुतही शोभायमान था, देखकर आँखें ठण्डी हो रही थीं। 

जिस कोठरी में अपना ठहरना था, उससे तीसरी कोठी में अन्य यात्री ठहरे हए थे,उनमें दो बच्चे भी थे। एक लड़की-दसरा लड़का, दोनों की उम्र ११-१२ वर्ष के लगभग रही होगी, उनके माता-पिता यात्रा पर थे। इन बच्चों को कुलियों की पीठपर इस प्रान्त में चलने वाली “कन्द्री” सवारी में बिठाकर लाये थे, बच्चे हँसमुख और बातूनी थे। 

दोनों में बहस हो रही थी कि यह सफेद चमकता हुआ पहाड़ किस चीज का है। उनले कहींसुन रखा था कि धातुओं की खाने पहाड़ों में होती है। बच्चों ने संगति मिलाई कि पहाड़ चाँदी का है। लड़की को इसमें सन्देह हुआ, वह यह तो न सोच सकी किचाँदी का न होगा तो और किस चीज का होगा, पर यह जरूर सोचा कि इतनी चाँदी इस प्रकार खुली पड़ी होती तो कोई न कोई उसे उठा ले जाने की कोशिश जरूर करता।वह लड़के की बात से सहमत नहीं हुई और जिद्दा-जिद्दी चल पड़ी। 

मुझे विवाद मनोरंजक लगा, बच्चे भी प्यारे लगे। दोनों को बुलाया और समझाया कि यहपहाड़ तो पत्थर का है; पर ऊँचा होने के कारण बर्फ जम गई है। गर्मी पड़ने पर यह बर्फ पिघल जाती है और सर्दी पड़ने पर जमने लगती है, वह बर्फ हीचमकने पर चाँदी जैसी लगती है। बच्चों का एक समाधान तो हो गया; पर वे उसी सिलसिले में ढेरों प्रश्न पूछते गये, मैं भी उनके ज्ञान-वृद्धि की दृष्टिसे पर्वतीय जानकारी से सम्बन्धित बहुत-सी बातें उन्हें बताता रहा। 

सोचता हूँ, बचपन में मनुष्य की बुद्धि कितनी अविकसित होती है। कि वह बर्फ जैसीमामूली चीज को चाँदी जैसी मूल्यवान् समझता है। बड़े आदमी की सूझ-बूझ ऐसी नहीं होती, वह वस्तुस्थिति को गहराई से सोच और समझ सकता है। यदि छोटेपनमें ही इतनी समझ आ जाय तो बच्चों को भी यथार्थता को पहचानने में कितनी सुविधा हो। 

पर मेरा यह सोचना भी गलत ही है, क्योंकि बड़े होने पर भी मनुष्य समझदार कहाँ होपाता है। जैसे ये दोनों बच्चे बर्फ को चाँदी समझ रहे थे, उसी प्रकार चाँदी-ताँबे के टुकड़ों को इन्द्रिय छेदों पर मचने वाली खुजली को, नगण्यअहंकार को, तुच्छ शरीर को बड़ी आयु का मनुष्य भी न जाने कितना अधिक महत्त्व दे डालता है और उसकी ओर इतना आकर्षित होता है कि जीवन लक्ष्य कोभुलाकर भविष्य को अन्धकारमय बना लेने की परवाह नहीं करता। 

सांसारिक क्षणिक और सारहीन आकर्षणों में हमारा मन उनसे भी अधिक तल्लीन हो जाता हैजितना कि छोटे बच्चों का मिट्टी के खिलौने के साथ खेलने में, कागज की नाव बहाने में लगता है। पढ़ना-लिखना, खाना-पीना छोड़कर पतंग उड़ाने में निमग्नबालक को अभिभावक उसकी अदूरदर्शिता पर धमकाते हैं, पर हम बड़ी आयु वालों को कौन धमकाए? जो आत्म स्वार्थ को भुलाकर विषय विकारों के इशारे पर नाचनेवाली कठपुतली बने हुए हैं। बर्फ चाँदी नहीं है, यह बात मानने में इन बच्चों का समाधान हो गया था, पर तृष्णा और वासना जीवन लक्ष्य नहीं है,हमारी इस भ्रांति का कौन समाधान करे?

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