आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर सुनसान के सहचरश्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर....
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पीली मक्खियाँ
आज हम लोग सघन वन में होकर चुपचाप चले जा रहे थे, तो सेव के पेड़ों परभिनभिनाती फिरने वाली पीली मक्खियाँ हम लोगों पर टूट पड़ीं, बुरी तरह चिपट गईं, छुटाने से भी न छूटती थीं। हाथों से, कपड़ों से उन्हें हटाया भी,भागे भी, पर उन्होंने देर तक पीछा किया। किसी प्रकार गिरते-पड़ते लगभग आधा मील आगे निकल गये, तब उनसे पीछा छूटा। उनके जहरीले डंक जहाँ लगे थे, सूजनआ गई, दर्द भी होता रहा।
सोचता हूँ इन मक्खियों को इस प्रकार आक्रमण करने की क्यों सूझी, क्या इनको इसमेंकुछ मिल गया है, हमें सताकर इनने क्या पाया? लगता है। यह मक्खियाँ सोचती होंगी कि यह वनप्रदेश हमारा है, हमें यहाँ रहना चाहिए। हमारे लिए यहसुरक्षित प्रदेश रहे, कोई दूसरा इधर पदार्पण न करे। उनकी अपनी भावना के विपरीत हमें उधर से गुजरते देखा कि यह हमारे प्रदेश में हस्तक्षेप करतेहैं, हमारे अधिकार क्षेत्र में अपना अधिकार चलाते हैं। हमारे उधर से गुजरने को सम्भव है, उनने ढीठता समझा हो और अपने बल एवं दर्प का प्रदर्शनकरने एवं हस्तक्षेप का मजा चखाने के लिए आक्रमण किया हो।
यदि ऐसी ही बात है, तो इन मक्खियों की मूर्खता थी। वह वन तो ईश्वर का बनायाहुआ था, कुछ उनने स्वयं थोड़े ही बनाया था। उन्हें तो पेड़ों पर रहकर अपनी गुजर-बसर करनी चाहिए थी। सारे प्रदेश पर कब्जा करने की उनकी लालसा व्यर्थथी, क्योंकि वे इतने बड़े प्रदेश का आखिर करतीं क्या? फिर उन्हें सोचना चाहिए था कि यह साझे की दुनियाँ है, सभी लोग उसका मिल-जुलकर उपयोग करें,तो ही ठीक है। यदि हम लोग उधर से निकल रहे थे, उस वनश्री की छाया-शोभा और सुगन्ध का लाभ उठा रहे थे, तो थोड़ा भी उठा लेने-देने की सहिष्णुता रखतीं।उनने अनुदारता करके हमें काटा, सताया, अपने डंक खोये, कोई-कोई तो इस झंझट में कुचल भी गयीं, घायल भी हुईं और मर भी गईं। वे क्रोध और गर्व नदिखातीं, तो क्यों उन्हें व्यर्थ की हानि उठानी पड़ती और क्यों हम सबकी दृष्टि में मूर्ख और स्वार्थी सिद्ध होतीं। हर दृष्टि से इस आक्रमण औरअधिकार लिप्सा में मुझे कोई बुद्धिमानी दिखाई न दी, यह “पीली मक्खियाँ” सचमुच ही ठीक शब्द था।
पर इन बेचारी मक्खियों को ही क्यों कोसा जाये? उन्हीं को मूर्ख क्यों कहाजाये? जबकि आज हम मनुष्य भी इसी रास्ते पर चल रहे। हैं। इस सृष्टि में जो विपुल उपभोग सामग्री परमात्मा ने पैदा की है, वह उसके सभी पुत्रों के लिएमिलकर-बाँटकर खाने और लाभ उठाने के लिए है, पर हममें से हर कोई जितना हड़प सके, उतने पर कब्जा जमाने के लिए उतावला हो रहा है। यह भी नहीं सोचा जाताकि शरीर की, कुटुम्ब की आवश्यकता थोड़ी ही है, उतने तक सीमित रहें, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं पर कब्जा जमाकर दूसरों को क्यों कठिनाई मेंडालें और क्यों मालिकी का व्यर्थ बोझ सिर पर लायें, जबकि उस मालिकी को देर तक अपने कब्जे में रख नहीं सकते।
पीली मक्खियों की तरह मनुष्य भी अधिकार लिप्सा के स्वार्थ और संग्रह में अन्धाहो रहा है। मिल-बाँटकर खाने की नीति उसकी समझ में ही नहीं आती, जो कोई उसे अपने स्वार्थ में बाधक होते दीखता है, उसी पर आँखें दिखाता है, अपनी शक्तिप्रदर्शित करता है और पीली मक्खियों की तरह टूट पड़ता है, इससे उनके इस व्यवहार से कितना कष्ट होता है इसकी चिन्ता किसे है?
पीली मक्खियाँ नन्हें-नन्हें डंक मारकर आधा मील पीछा करके वापिस लौट गईं, परमनुष्य की अधिकार लिप्सा, स्वार्थपरता और अहंकार से उद्धत होकर किये जाने वाले आक्रमणों की भयंकरता को जब सोचता हूँ तो बेचारी पीली मक्खियों को हीबुरा-भला कहने में जीभ सकुचाने लगती है।
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