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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर

सुनसान के सहचर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4257
आईएसबीएन :00000

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सुनसान के सहचर....

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ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते


कई दिन से शरीर को सुन्न कर देने वाले बर्फीले ठण्डे पानी से स्नान करते आरहे थे। किसी प्रकार हिम्मत बाँधकर एक-दो डुबकी तो लगा लेते थे, पर जाड़े के मारे शरीर को ठीक तरह रगड़ना और उस तरह स्नान करना नहीं बन पड़ रहा था,जैसा देह की सफाई की दृष्टि से आवश्यक है। आगे जगननी चट्टी पर पहुँचे, तो पहाड़ के ऊपर वाले तीन तप्त कुण्डों का पता चला, जहाँ से गरम पानी निकलताहै। ऐसा सुयोग पाकर मल-मलकर स्नान करने की इच्छा प्रबल हो गई। गंगा का पुल पार कर ऊँची चढ़ाई की टेकरी को कई जगह बैठ-बैठकर हाँफते-हाँफते पार कियाऔर तप्त कुण्डों पर जा पहुँचे। बराबर-बराबर तीन कुण्ड थे, एक का पानी इतना गरम था कि उसमें नहाना तो दूर, हाथ दे सकना भी कठिन था। बताया गया कि यदिचावल दाल की पोटली बाँधकर इस कुण्ड में डाल दी जाय तो वह खिचड़ी कुछ देर में पक जाती है। यह प्रयोग तो हम न कर सके, पर पास वाले दूसरे कुण्ड मेंजिसका पानी सदा गरम रहता है, खूब मल-मलकर स्नान किया और हफ्तों की अधूरी आकांक्षा पूरी की, कपड़े भी गरम पानी से खूब धुले, अच्छे साफ हुए। 

सोचता हूँ कि पहाड़ों पर बर्फ गिरती रहती है और छाती में से झरने वाले झरने सदाबर्फ सा ठण्डा जल प्रवाहित ही करते हैं, उनमें कहीं-कहीं ऐसे उष्ण सोते क्यों फूट पड़ते हैं? मालूम होता है कि पर्वत के भीतर कोई गन्धक की परत हैवही अपने समीप से गुजरने वाली जलधारा को असह्य उष्णता दे देती है। इसी तरह किसी सज्जन में अनेक शीतल शांतिदायक गुण होने से उसका व्यवहार ठण्डे सोतोंकी तरह शीतल हो सकता है, पर यदि दुर्बुद्धि की एक भी परत छिपी हो, तो उसकी गर्मी गरम स्रोतों की तरह बाहर फूट पड़ती है और वह छिपती नहीं। 

जो पर्वत अपनी शीतलता को अक्षुण्य बनाए रहना चाहते हैं, उन्हें इस प्रकार कीगन्धक जैसी विषैली पर्तों को बाहर निकाल फेंकना चाहिए। एक दूसरा कारण इन तप्त कुण्डों का और भी हो सकता है कि शीतल पर्वत अपने भीतर के इस विकार कोनिकाल-निकाल कर बाहर फेंक रहा हो और अपनी दुर्बलता को छिपाने की अपेक्षा सबके सामने प्रकट कर रहा हो- जिससे उसे कपटी और ढोंगी न कहा जा सके।दुर्गुणों का होना बुरी बात है, पर उन्हें छिपाना उससे भी बुरा है-इस तथ्य को यह पर्वत जानते हैं, यदि मनुष्य भी इसे जान लेता तो कितना अच्छाहोता। 

यह समझ में आता है कि हमारे जैसे ठंडे स्नान से खिन्न व्यक्तियों की गरम जल से स्नानकराने की सुविधा और आवश्यकता का ध्यान रखते हुए पर्वत ने अपने भीतर बची थोड़ी गर्मी को बाहर निकालकर रख दिया हो। बाहर से तो वह भी ठण्डा हो चला,फिर भीतर कुछ गर्मी बच गई होगी। पर्वत सोचता होगा जब सारा ही ठण्डा हो चलो, तो इस थोड़ी-सी गर्मी को बचाकर ही क्या करूंगा. इसे भी क्यों नजरूरतमन्दों को दे डालें। उस आत्मदानी पर्वत की तरह कोई व्यक्ति भी ऐसे हो सकते हैं, जो स्वयं अभावग्रस्त, कष्टसाध्य जीवन व्यतीत करते हों और इतनेपर भी जो शक्ति बची हो उसे भी जनहित में लगाकर इन तप्त कुण्डों का आदर्श उपस्थित करें। इस शीतप्रदेश का वह तप्त कुण्ड भुलाये नहीं भूलेगा। मेरेजैसे हजारों यात्री उसका गुणगान करते रहेंगे, उसमें त्याग भी तो असाधारण है। स्वयं ठण्डे रहकर दूसरों के लिए गर्मी प्रदान करना, भूखे रहकर दूसरोंकी रोटी जुटाने के समान है। सोचता हूँ। बुद्धिहीन जड़-पर्वत जब इतना कर सकता है तो क्या बुद्धिमान् बनने वाले मनुष्य को केवल स्वार्थी ही रहनाचाहिए?

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