लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर

सुनसान के सहचर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4257
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

271 पाठक हैं

सुनसान के सहचर....

6

आलू का भालू

 

आज गंगोत्री यात्रियों का एक दल और भी साथ मिल गया। उस दल में सात आदमीथे-पाँच पुरुष, दो स्त्रियाँ। हमारा बोझा तो हमारे कन्धे पर था, पर उन सातों का बिस्तर एक पहाड़ी कुली लिए चल रहा था। कुली देहाती था, उसकी भाषाभी ठीक तरह समझ में नहीं आती थी। स्वभाव का भी अक्खड़ और झगड़ालू जैसा था। झाला चट्टी की ओर ऊपरी पठार पर जब हम लोग चल रहे थे, तो उँगली का इशाराकरके उसने कुछ विचित्र डरावनी-सी मुद्रा के साथ कोई चीज दिखाई और अपनी भाषा में कुछ कहा। सब बात तो समझ में नहीं आई, पर दल के एक आदमी ने इतनाही समझा भालू-भालू, वह गौर से उस ओर देखने लगा। घना कुहरा उस समय पड़ रहा था, कोई चीज ठीक से दिखाई नहीं पड़ती थी, पर जिधर कुली ने इशारा किया था,उधर काले-काले कोई जानवर उसे घूमते नजर आये। 

जिस साथी ने कुली के मुँह से भालू-भालू सुना था और उसके इशारे की दिशा मेंकाले-काले जानवर घूमते दीखे थे, वह बहुत डर गया। उसने पूरे विश्वास के साथ यह समझ लिया कि नीचे भालू-रीछ घूम रहे हैं। वह पीछे था, पैर दाब करजल्दी-जल्दी आगे लपका कि वह भी हम सबके साथ मिल जाय, कुछ देर में वह हमारे साथ आ गया। होंठ सूख रहे थे और भय से काँप रहा था। उसने हम सबको रोका औरनीचे काले जानवर दिखाते हुए बताया कि भालू घूम रहे हैं, अब यहाँ जान का खतरा है। 

डर तो हम सभी गये, पर यह न सूझ पड़ रहा था कि किया क्या जाये? जंगल काफी घनाथा-डरावना भी, उसमें रीछ के होने की बात असम्भव न थी। फिर हमने पहाड़ी रीछों की भयंकरता के बारे में भी कुछ बढ़ी-चढ़ी बातें परसों ही साथीयात्रियों से सुनी थीं, जो दो वर्ष पूर्व मानसरोवर गये थे। डर बढ़ रहा था, काले जानवर हमारी ओर आ रहे थे। घने कुहरे के कारण शक्ल तो साफ नहीं दीखरही थी, पर रंग के काले और कद में बिलकुल रीछ जैसे थे, फिर कुली ने इशारे से भालू होने की बात बता दी है, अब संदेह की बात नहीं। सोचा-कुली से हीपूछे कि अब क्या करना चाहिए, पीछे मुड़कर देखा तो कुली ही गायब था। कल्पना की दौड़ ने एक ही अनुमान लगाया कि वह जान का खतरा देखकर कहीं छिप गया हैया किसी पेड़ पर चढ़ गया है। हम लोगों ने अपने भाग्य के साथ अपने को बिलकुल अकेला असहाय पाया। 

हम सब एक जगह बिलकुल नजदीक इकट्टे हो गये। दो-दो ने चारों दिशाओं की ओर मुँहकर लिए, लोहे की कील गड़ी हुई लाठियाँ जिन्हें लेकर चल रहे थे, बन्दूकों की भाँति सामने तान ली और तय कर लिया कि जिस पर रीछ हमला करे, वे उसकेमुँह में कील गड़ी लाठी टॅस दें और साथ ही सब लोग उस पर हमला कर दें, कोई भागे नहीं, अन्त तक सब साथ रहें चाहे जिएँ, चाहे मरें। योजना के साथ सबलोग धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे, रीछ जो पहले हमारी ओर आते दिखाई दे रहे थे, नीचे की ओर उतरने लगे, हम लोगों ने चलने की रफ्तार काफी तेज कर दी, दूनीसे अधिक। जितनी जल्दी हो सके, खतरे को पार कर लेने की ही सबकी इच्छा थी। ईश्वर का नाम सबकी जीभ पर था। मन में भय बुरी तरह समा रहा था। इस प्रकारएक-डेढ़ मील का रास्ता पार किया। 

कुहरा कुछ कम हुआ, आठ बज रहे थे। सूर्य का प्रकाश भी दीखने लगा। घनी वृक्षावलीभी पीछे रह गई, भेड़-बकरी चराने वाले भी सामने दिखाई दिये। हम लोगों ने सन्तोष की साँस ली। अपने को खतरे से बाहर अनुभव किया और सुस्ताने के लिएबैठ गये। इतने में कुली भी पीछे से आ पहुँचा। हम लोगों को घबराया हुआ देखकर वह कारण पूछने लगा। साथियों ने कहा-तुम्हारे बताये हुए भालुओं सेभगवान् ने जान बचा दी, पर तुमने अच्छा धोखा दिया, बजाय उपाय बताने के तुम खुद छिपे रहे। 

कुली सकपकाया, उसने समझा उन्हें कुछ भ्रम हो गया। हम लोगों ने उसके इशारे सेभालू बताने की बात दुहराई तो वह सब बात समझ गया कि हम लोगों को क्या गलतफहमी हुई है। उसने कहा-"झेला गाँव का आलू मशहूर बहुत बड़ा-बड़ा पैदाहोता है, ऐसी फसल इधर किसी गाँव में नहीं होती वही बात मैंने अँगुली के इशारे से बताई थी। झाला का आलू कहा था आपने उसे भालू समझा। वह काले जानवरतो यहाँ की काली गायें हैं, जो दिन भर इसी तरह चरती-फिरती हैं। कुहरे के कारण ही वे रीछ जैसी आपको दीखीं। यहाँ भालू कहाँ होते हैं, वे तो और ऊपरपाए जाते हैं, आप व्यर्थ ही डरे। मैं तो टट्टी करने के लिए छोटे झरने के पास बैठ गया था। साथ होता तो आपका भ्रम उसी समय दूर कर देता। 

हम लोग अपनी मूर्खता पर हँसे भी और शर्मिन्दा भी हुए। विशेषतया उस साथी कोजिसने कुली की बात को गलत तरह समझा, खूब लताड़ा गया। भय मजाक में बदल गया। दिन भर उस बात की चर्चा रही। उस डर के समय में जिस-जिसने जो-जो कहा था औरकिया था उसे चर्चा का विषय बनाकर सारे दिन आपस की छींटाकशी-चुहलबाजी होती रही। सब एक दूसरे को अधिक डरा हुआ परेशान सिद्ध करने में रस लेते। मंजिलआसानी से कट गई। मनोरंजन का अच्छा विषय रहा। 

भालू की बात जो घण्टे भर पहले बिलकुल सत्य और जीवन-मरण की समस्या मालूम पड़तीरही, अन्त में एक और भ्रान्ति मात्र सिद्ध हुई। सोचता हूँ कि हमारे जीवन में ऐसी अनेकों भ्रांतियाँ घर किये हुए हैं और उनके कारण हम निरन्तर डरतेरहते हैं, पर अन्तत: वे मानसिक दुर्बलता मात्र साबित होती हैं। हमारे ठाट-बाट, फैशन और आवास में कमी आ गई तो लोग हमें गरीब और मामूली समझेंगे,इस अपडर से अनेकों लोग अपने इतने खर्चे बढ़ाए रहते हैं, जिनको पूरा करना कठिन पड़ता है। लोग क्या कहेंगे यह बात चरित्र पतन के समय याद आवे तो ठीकभी है; पर यदि यह दिखावे में कमी के समय मन में आवे तो यही मानना पड़ेगा कि वह अपडर मात्र है, खर्चीला भी और व्यर्थ भी। सादगी से रहेंगे, तो गरीबसमझे जायेंगे, कोई हमारी इज्जत न करेगा। यह भ्रम दुर्बल मस्तिष्कों में ही उत्पन्न होता है, जैसे कि हम लोगों को एक छोटी-सी नासमझी के कारण भालू काडर हुआ था। 

अनेकों चिन्ताएँ, परेशानियाँ, दुबिधाएँ, उत्तेजनाएँ, वासनाएँ तथा दुर्भावनाएँ आएदिन सामने खड़ी रहती हैं, लगता है यह संसार बड़ा दुष्ट और डरावना है। यहाँ की हर वस्तु भालू की तरह डरावनी है; पर जब आत्मज्ञान का प्रकाश होता है,अज्ञान का कुहरा फटता है, मानसिक दौर्बल्य घटता है, तो प्रतीत होता है कि जिसे हम भालू समझते थे, वह तो पहाड़ी गाय थी। जिन्हें शत्रु मानते हैं, वेतो हमारे अपने ही स्वरूप हैं। ईश्वर अंश मात्र हैं। ईश्वर हमारा प्रियपात्र है तो उसकी रचना भी मंगलमय होनी चाहिए। उसे जितने विकृत रूपमें हम चित्रित करते हैं, उतना ही उससे डर लगता है। यह अशुद्ध चित्रण हमारी मानसिक भ्रान्ति है, वैसी ही जैसी कि कुली के शब्द आलू को भालूसमझकर उत्पन्न कर ली गई थी। 

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book