आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर सुनसान के सहचरश्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर....
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रोते पहाड़
आज रास्ते में “रोते पहाड़” मिले। उनके पत्थर नरम थे, ऊपर किसी सोते का पानीरुका पड़ा था। पानी को निकलने के लिए जगह न मिली। नरम पत्थर उसे चूसने लगे, वह चूसा हुआ पानी जाती कहाँ? नीचे की ओर वह पहाड़ को गीला किये हुएथा। जहाँ जगह थी वहाँ वह गीलापन धीरे-धीरे इकट्ठा होकर बूंदों के रूप में टपक रहा था। इन टपकती बूंदों को लोग अपनी भावना के अनुसार आँसू की बूंदेंकहते हैं। जहाँ-तहाँ से मिट्टी उड़कर इस गीलेपन से चिपक जाती है, उसमें हरियाली के जीवाणु भी आ जाते हैं। इस चिपकी हुई मिट्टी पर एक हरी मुलायमकाई जैसी उग आती है। काई को पहाड़ में “कीचड़” कहते है। जब वह रोता है तो आँखें दुःखती हैं। रोते हुए पहाड़ आज हम लोगों ने देखे, उनके आँसू भी कहींसे पोंछे। कीचड़ों को टटोल कर देखा। वह इतना ही कर सकते थे। पहाड़ तू क्यों रोता है? इसे कौन पूछता और क्यों वह इसका उत्तर देता?
पर कल्पना तो अपनी जिद की पक्की है ही, मन पर्वत से बातें करने लगा। पर्वतराज ! तुम इतनी वनश्री से लदे हो, भाग-दौड़ की कोई चिन्ता भी तुम्हें नहीं है, बैठे-बैठे आनन्द के दिन गुजारते हो, तुम्हें किस बात की चिन्ता?तुम्हें रुलाई क्यों आती है?
पत्थर का पहाड़ चुप खड़ा था; पर कल्पना का पर्वत अपनी मनोव्यथा कहने ही लगा।बोला मेरे दिल का दर्द तुम्हें क्या मालूम? मैं बड़ा ही ऊँचा हूँ, वनश्री से लदा हूँ, निश्चिन्त बैठा रहता हूँ। देखने को मेरे पास सब कुछ है, परनिष्क्रिय- निश्चेष्ट जीवन भी क्या कोई जीवन है। जिसमें गति नहीं, संघर्ष नहीं, आशा नहीं, स्फूर्ति नहीं, प्रयत्न नहीं वह जीवित होते हुए भी मृतकके समान है। सक्रियता में ही आनन्द है। मौज के छानने और आराम करने में तो केवल काहिल की मुर्दनी की नीरवता मात्र है। इसे अनजान ही आराम और आनन्द कहसकते हैं। इस दृष्टि से क्रीड़ापन में जो जितना खेल लेता है, वह अपने को उतना ही तरो-ताजा और प्रफुल्लित अनुभव करता है। सृष्टि के सभी पुत्रप्रगति के पथ पर उल्लास भरे सैनिकों की तरह कदम पर कदम बढ़ाते, मोर्चे पर मोर्चा पार करते चले जाते हैं। दूसरी ओर मैं हूँ जो सम्पदाएँ अपने पेट मेंछिपाए मौज की छान रहा हूँ। कल्पना बेटी तुम मुझे सेठ कह सकती हो, अमीर कह सकती हो, भाग्यवान् कह सकती हो, पर हूँ तो मैं निष्क्रिय ही। संसार कीसेवा में अपने पुरुषार्थ का परिचय देकर लोग अपना नाम इतिहास में अमर कर रहे हैं, कीर्तिवान् बन रहे हैं। अपने प्रयत्न का फल दूसरे को उठाते देखकरगर्व अनुभव कर रहे हैं; पर मैं हूँ जो अपना वैभव अपने तक ही समेटे बैठा हूँ। इस आत्मग्लानि से यदि रुलाई मुझे आती है, आँखो में आँसू बरसते औरकीचड़ निकलते हैं, तो उसमें अनुचित ही क्या है?
मेरी नन्ही-सी कल्पना ने पर्वतराज से बातें कर लीं, समाधान भी पा लिया, पर वहभी खिन्न ही थी। बहुत देर तक यही सोचती रही, कैसा अच्छा होता, यदि इतना बड़ा पर्वत अपने टुकड़े-टुकड़े करके अनेकों भवनों, सड़कों, पुलों के बनानेमें खप सका होता। तब भले वह इतना बड़ा न रहता, सम्भव है इस प्रयत्न से उसका अस्तिव भी समाप्त हो जाता, लेकिन तब वह वस्तुत: धन्य हुआ होता,वस्तुत: उसका बड़प्पन सार्थक हुआ होता। इन परिस्थितियों से वंचित रहने पर यदि पर्वतराज अपने को अभागा मानता है और अपने दुर्भाग्य को धिक्कारता हुआसिर धुनकर रोता है, तो उसका यह रोना सकारण ही है।
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