लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म ? क्या अधर्म ?

क्या धर्म ? क्या अधर्म ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4258
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

59 पाठक हैं

धर्म और अधर्म पर आधारित पुस्तक....


ऊपर पेट की भूख का उल्लेख किया गया है। ऐसी ही अनेक भूखें मनुष्य को रहती हैं। उनमें से कुछ शारीरिकहैं कुछ मानसिक। इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को चाहती हैं यह कोई बुरी बात नहीं है वरन् आत्मोन्नति के लिए आवश्यक है। मैथुनेच्छा यदि मनुष्य कोन होती तो वह बिल्कुल ही स्वार्थी बना रहता। सन्तान के लालन-पालन में जो परोपकार की, सेवा की, स्नेह की, दुलार की, कष्ट सहन की भावनाऐं जागृत होतीहें बे बिना सन्तान के कैसे होतीं? काम-वासना बिना सन्तान न होती, इसलिए सात्विकी वृत्तियों को जगाने के लिए काम-वासना की भूख परमात्मा ने मनुष्यको दे दी। इन्द्रियों की भूखें बड़ी ही महत्वपूर्ण हैं उनकी रचना परमात्मा ने बहुत सोच-विचारकर ही की है। इसी प्रकार मनुष्य की सभी शारीरिक औरमानसिक वृत्तियाँ जो जन्म से उसे स्वाभाविक रीति से प्राप्त होती हैं जीवन को उन्नत, विकसित, सरस उत्साहप्रद एवं आनन्दी बनाने के लिए बहुत ही आवश्यकहैं। अक्सर धार्मिक विद्वान् इन्द्रिय भोगों को बुरा, घृणित, पापपूर्ण बताया करते हैं। असल में उनके कथन का मार्ग यह है कि इन्द्रिय भोगों कादुरुपयोग करना बुरा है। जैसे अभाव बुरा है वैसे ही अति भी बुरी है। भूखा रहने से शरीर का ह्रास होता है और अधिक खाने से पेट में दर्द होने लगताहै। उत्तम यह है कि मध्यम मार्ग का अवलम्बन किया जाय। न तो भूखे रहें और न अधिक खायें वरन् भूख की आवश्यकता को मर्यादा के अन्तर्गत पूरा किया जाय।वास्तविक बात यह है कि अति एव अभाव को पाप कहते हैं। जैसे धन उपार्जन करना एक उचित एवं आवश्यक कार्य है। इसी में जब अति या अभाव का समावेश हो जाताहै तो पापपूर्ण स्थिति पैदा होती है। धन न कमाने वाले को हरामखोर, निठल्ला, आलसी, अकर्मण्य, नालायक कहा जाता है और धन कमाने की लालसा मेंअत्यन्त तीव्र भावना से जुट जाने वाला लोभी, कंजूस, अर्थ-पिशाच आदि नामों से तिरस्कृत किया जाता है। कारण यह है कि किसी बात में अति करने से अन्यआवश्यक कार्य छूट जाते हैं। व्यायाम करना उत्तम कार्य है पर कोई व्यक्ति दिन-रात व्यायाम करने पर ही पिल पड़े अथवा हाथ-पैर हिलाना भी बन्द कर दे तोयह दोनों ही स्थितियाँ हानिकारक होंगी और विवेकवानों द्वारा उनकी निन्दा की जायगी। विवेकपूर्वक खर्च करना एक मध्यम मार्ग है, परन्तु खर्च न करनेवाले को कंजूस और बहुत खर्च करने वाले को अपव्ययी कहा जाता है। खर्च करना एक स्वाभाविक कर्म है, पर अति या अभाव के साथ वही अकर्म बन जाता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book