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आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म ? क्या अधर्म ?

क्या धर्म ? क्या अधर्म ?

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 4258
आईएसबीएन :00000

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धर्म और अधर्म पर आधारित पुस्तक....



धर्म का मर्म


सृष्टि का निर्माण होने पर जीवों में जब चेतना शक्ति उत्पन्न हुई और वे कुछ कर्तव्य-अकर्तव्य केसम्बन्ध में सोचने विचारने लगे तो उनके सामने धर्म-अधर्म का प्रश्न उपस्थित हुआ। उस समय भाषा और लिपि का सुव्यवस्थित प्रचलन नहीं था और न कोईधर्म पुस्तक ही मौजूद थी। शिक्षा देने वाले धर्म गुरु भी दृष्टिगोचर नहीं होते थे, ऐसी दशा में अपने अन्दर से पथ प्रदर्शन करने वाली आध्यात्मिकप्रेरणा जागृत होती थी, मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करते थे। 'वेद अनादि ईश्वर कृत है।' इसका अर्थ यह है कि धर्म का आदि सोत मनुष्यों द्वारानिर्मित नहीं है वरन् सृष्टि के साथ ही अन्तरात्मा द्वारा ईश्बर ने उसे मानव जाति के निमित्त भेजा था। वेद की भाषा या मन्त्र रचना ईश्वर निर्मितहै यह मान्यता ठीक नहीं, वास्तविकता यह है कि प्रबुद्ध आत्माओं वाले ऋषियों के अन्तःकरण में ईश्वरीय सन्देश आये और उन्होंने उन संदेशों कोमन्त्रों की तरह रच दिया। प्राय: सभी धमों की मान्यता यह है कि 'उनका धर्म अनादि है, पैगम्बरों और अवतारों ने तो उनका पुनरुद्धार मात्र किया है।'

तत्वत: सभी धर्म अनादि हैं। अर्थात एक ही अनादि धर्म की शाखाऐं हैं। उनका पोषण जिस वस्तु से होताहै, वह 'सत्’ तत्व है यही धर्म सच्चे ठहर सकते हैं, जो सत् पर अवलम्बित हैं। असत् तो वंचना मात्र है वह अल्पस्थाई होता है और बहुत शीघ्र नष्ट होजाता है। कोई भी संप्रदाय यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि हमारा धर्म 'सत्’ पर अवलम्बित नहीं है। इसलिए यह स्वीकार करना ही होगा कि अनादि सत्यका आश्रय लेकर अनेक धर्म संप्रदाय उत्पन्न हुए हैं। यह आदि सत्य हमारी अन्तरात्मा में ईश्वर द्वारा भली प्रकार पिरो दिया गया है। न्याय बुद्धिका आश्रय लेकर जब हम कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय करना चाहते हैं तो अन्तरात्मा उसका सही-सही निर्णय कर देती है।

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