आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म ? क्या अधर्म ? क्या धर्म ? क्या अधर्म ?श्रीराम शर्मा आचार्य
|
59 पाठक हैं |
धर्म और अधर्म पर आधारित पुस्तक....
कई बार सम्प्रदायिक और सामाजिक रीति-रिवाजों और अन्य मान्यताओं के सम्बन्ध में आपके सामने बड़ीपेचीदा गुत्थी उपस्थित हो सकती है। विभिन्न धर्मों के पूज्यनीय अवतार और धर्म ग्रन्थ एक-दूसरे से विपरीत उपदेश देते हैं। ऐसी दशा में बड़ा मतिभ्रमहोता है। किसे मानें और किसे न मानें। इस गुत्थी को सुलझाने के लिए आपको यह बात हृदयंगम कर लेनी चाहिए कि अवतारों का आगमन और धर्म ग्रन्थों कानिर्माण समय की आवश्यकता को पूरी करने के लिए होता है। कोई पुराने नियम जब समय से पीछे के हो जाने के कारण अनुपयोगी हो जाते हैं, तो उनमें सुधारकरने के लिए नये-नये सुधारक, नये अवतार प्रकट होते हैं। देश, काल और व्यक्तियों की विभिन्नता के कारण उनके उपदेश भी अलग-अलग होते हैं। देश,काल और पात्र के अनुसार वेद एक से चार हुए, कुरान में संशोधन हुआ, बाइबिल तो अनेक अवतारों को उक्तियों का संग्रह है। जब वैदिकी ब्रह्मोपासनाआवश्यकता से अधिक बड़ी तो भौतिकवादी बाम-मार्ग की आवश्यकता हुई। जब वाममार्गी हिंसा की अति हुई तो भगवान् बुद्ध ने अहिंसा का मार्ग चलाया, जबअहिंसा का रोड़ा मानव जीवन के मार्ग में बाधा देने लगा तो शंकराचार्य ने उस का खण्डन करके वेदान्त का प्रतिपादन किया - इसी प्रकार समस्त विश्व मेंधार्मिक और सामाजिक परिवर्तन होते रहे हैं। साम्प्रदायिक नियम और व्यवस्थाओं का अस्तित्व समयानुसार परिवर्तन की धुरी पर घूम रहा है। देश,काल और पात्र के भेद से इनमें परिवर्तन होता है और होना चाहिए। एक नियम एक समय के लिए उत्तम है तो वहीं कालान्तर में हानिप्रद हो सकता है। गर्मी कीरातों में लोग नंगे बदन सोते हैं पर वही नियम सर्दी की रातों में पालन किया जायगा तो उसका बड़ा घातक परिणाम होगा।
|