आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाएश्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद पर आधारित पुस्तक
निश्चय ही अध्यात्म की चमत्कारी स्थिति तक सबको पहुँचने की आवश्यकता नहीं है। तथापि इतनी आवश्यकता तो सबके लिए ही है कि वह इसकी साधना से अपने जीवन में सुख-शांति का समावेश कर सकें। ऋषि-मुनियों की अखंड आत्म-साधना की हिसका करना उचित नहीं, क्योंकि वह सर्वसाधारण के वश की बात नहीं होती और जो लोग लोभ, स्पर्धा अथवा अहंकार के वशीभूत होकर अपने सामान्य जीवन की साधना से हटकर असाधारण साधना में चले जाते हैं, वे न तो इधर के ही रहते हैं और न उधर के। यद्यपि अध्यात्म की असाधारण साधना किसी के लिए वर्जित नहीं है, तथापि वह तब तक उचित नहीं है जब तक मनुष्य उस साधना के योग्य मानसिक स्तर में न पहुँच जाए। ऋषि-मुनियों की तरह चमत्कारी सिद्धियाँ प्राप्त कर लेने के लोभ से जो लोग हठपूर्वक सांसारिक कर्तव्य त्यागकर योग साधनाओं में लग जाते हैं, वे भूल करते हैं और उस ओर का कोई विशेष लाभ तो नहीं उठा पाते, इस ओर से संसार से भी वंचित हो जाते हैं।
ऋषित्व की प्राप्ति किसी एक जन्म की साधना का फल नहीं होता। वह तो जन्म-जन्मांतरों की निर्बाध साधना का ही संचित सत्फल होता है। साधना की सिद्धि साहसिक घटना नहीं है। वह तो जन्म-जन्म की साधन परंपरा का एक सुनिश्चित परिणाम ही होता है। कोई साधक अपने पूर्वजन्मों की परंपरा में अपने आवश्यक कर्तव्यों के साथ थोड़ी-थोड़ी अध्यात्म साधना भी करता चलता है। धीरे-धीरे उसका विकास होता है और संस्कार संचय होते जाते हैं। कालांतर में जब संस्कारों की निधि संचय हो जाती है, तब किसी एक जन्म में सारी संचित साधना सिद्धि के रूप में परिपक्व हो जाती है और वह व्यक्ति चमत्कारी शक्तियों का विधान बन जाता है। सामान्य स्थिति से चमत्कारी स्थिति पर पहुँचने की यही सुंदर, सरल और असंदिग्ध विधि है। साहसिक साधना से किसी लाभ के होने की आशा संदिग्ध ही रहती है।
सामान्य व्यक्तियों के लिए यही उचित है कि जीवन में चमत्कारी सिद्धि के लोभ से विमुख होकर अध्यात्मवाद के उस व्यावहारिक आदर्श को अपनाया जाए, जिससे जीवन में शोक-संताप की मात्रा कम हो और सुख-शांति की वृद्धि होती चले। लौकिक जीवन में जितने भी सुख-साधन और प्रसन्नतादायक अवसर हैं, उनका मूल अध्यात्म ही है। जब मनुष्य जीवन में आध्यात्मिक विचारधारा का समावेश कर लेता है तो उसका अंतर तथा बाह्य सर्वथा निर्दोष तथा उदार हो जाता है। वह सबके साथ आत्मीयता तथा आत्म-भाव अनुभव करने लगता है। किसी को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष किसी भी प्रकार से कष्ट दे सकना उसके वश की बात नहीं होती। परोपकार, पुण्य तथा परमार्थ में उसका विश्वास अटल तथा अडिग हो जाता है। ऐसे विचार तथा व्यवहार वाले व्यक्ति के लिए चारों ओर अनुकूलता ही अनुकूलता उत्पन्न हो जाती है। यह अखंड नियम है कि जो व्यक्ति संसार में सबके लिए अनुकूल होगा, उसके लिए सारा ससार भी अनुकूल ही रहेगा। अनुकूलता को सुख-शांति तथा कल्याण की जननी माना गया है। जिसने अपनी आध्यात्मिक विचारधारा से स्त्री, पुत्रों, परिवार, परिजनों, मित्रों, सहृदयों, संबंधियों और संपर्कों को अनूकूल बना लिया, उसने मानो इस भूमि पर ही अपने लिए स्वर्ग की भूमिका तैयार कर ली।
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- भौतिकता की बाढ़ मारकर छोड़ेगी
- क्या यही हमारी राय है?
- भौतिकवादी दृष्टिकोण हमारे लिए नरक सृजन करेगा
- भौतिक ही नहीं, आध्यात्मिक प्रगति भी आवश्यक
- अध्यात्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती
- अध्यात्म की अनंत शक्ति-सामर्थ्य
- अध्यात्म-समस्त समस्याओं का एकमात्र हल
- आध्यात्मिक लाभ ही सर्वोपरि लाभ है
- अध्यात्म मानवीय प्रगति का आधार
- अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष
- हमारा दृष्टिकोण अध्यात्मवादी बने
- आर्ष अध्यात्म का उज्ज्वल स्वरूप
- लौकिक सुखों का एकमात्र आधार
- अध्यात्म ही है सब कुछ
- आध्यात्मिक जीवन इस तरह जियें
- लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे
- अध्यात्म और उसकी महान् उपलब्धि
- आध्यात्मिक लक्ष्य और उसकी प्राप्ति
- आत्म-शोधन अध्यात्म का श्रीगणेश
- आत्मोत्कर्ष अध्यात्म की मूल प्रेरणा
- आध्यात्मिक आदर्श के मूर्तिमान देवता भगवान् शिव
- आद्यशक्ति की उपासना से जीवन को सुखी बनाइए !
- अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए
- आध्यात्मिक साधना का चरम लक्ष्य
- अपने अतीत को भूलिए नहीं
- महान् अतीत को वापस लाने का पुण्य प्रयत्न