आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाएश्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद पर आधारित पुस्तक
आत्मोत्कर्ष अध्यात्म की मूल प्रेरणा
ब्रह्म विद्या की अंतरता पुकार-पुकार कर कहती है-उठो, जागो और उनति के लिए आगे बढ़ो। प्रकृति का हर एक परमाणु आगे बढ़ने के लिए हलचल कर रहा है। सूर्य को देखिए, चंद्रमा को देखिये, नक्षत्रों को देखिए सभी तो चल रहे हैं, यात्रा का क्रम जारी रख रहे हैं। एक क्षण के लिए भी विश्राम करने की उन्हें फुर्सत नहीं। नदियाँ दौड़ रही हैं, वायु बह रही है, पौधे ऊपर उठ रहे हैं, वृक्ष नवीन फल उपजा रहे हैं, जो पदार्थ स्थिर मालूम पड़ते हैं, वे भी अदृश्य रूप से चल रहे हैं। भूमि में रहने वाले रासायनिक पदार्थ चुपके-चुपके एक जगह से दूसरी जगह को चलते हैं, शरीर के जीवन घटक (सेल्स) नित नया रूप धारण करते हैं, अन्न से आटा, आटे से रोटी बनी, रोटी का मल, मल का खाद, खाद से वनस्पति। इस प्रकार उन परमाणुओं की यात्रा जारी रहती है। प्रकृति के परमाणुओं का अन्वेषण करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रत्येक विद्युत् घटक (इलेक्ट्रॉन) प्रति सेकंड सैकड़ों मील की चाल से अपनी धुरी पर घूमता हुआ आगे बढ़ रहा है। इस विश्व का एक-एक कण आगे बढ़ रहा है।
हम अपनी "जीवन की गूढ-गुत्थियों पर तात्त्विक प्रकाश" पुस्तक में सविस्तार यह बता चुके हैं कि जीव आगे बढ़ रहा है। प्रत्येक जन्म में वह आगे ही बढ़ता जाता है। उन्नति क्रम पर निरंतर आगे बढ़ने की उसकी भूख ईश्वर-प्रदत्त है। उन्नति से संतुष्ट होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता, मनुष्य को अपनी संपूर्ण अपूर्णताएँ हटाकर उतना उन्नत बनना है, जितना उसका पिता-ईश्वर है। जब तक जीवनमुक्त, ब्रह्मस्थित नहीं हो जाता तब तक यात्रा में विराम कैसा? मंजिल में रुकना कैसा? मामूली-सी उन्नति कर जाने पर लोग कहने लगते हैं, अब इतना मिल गयासंतोष करना चाहिए। अधिक के लिए हाय, हाय क्यों करें? जो कुछ उपलब्ध हो गया है उतना ही बहुत है। यह अनात्मवादी विचारधारा है, ईश्वरीय इच्छा के विरुद्ध है, प्रकृति के नियमों के विपरीत है। भोजन करके मनुष्य संतुष्ट हो जाता है, उसकी भूख बुझ जाती है, फिर उससे एक लड्डू और खाने को कहा जाए तो न खा सकेगा। इसमें यह प्रकट होता है कि इस दशा में प्राकृतिक नियम और अधिक खाने का विरोध करते हैं। परंतु उन्नति में कोई संतुष्ट नहीं होता, हर व्यक्ति यही चाहता रहता है कि मैं और आगे बढूँ और उन्नति करूँ।
नाक से जो हवा हम खींचते हैं, वह शरीर में अंदर जाती है, उसका ऑक्सीजन तत्त्व रक्त को लालिमा प्रदान करता है। तदुपरांत वह वायु निष्प्रयोजन हो जाती है, उसे शरीर निकालकर बाहर फेंक देता है। जब साँस खींची गई थी तब वही वायु बहुत उपयोगी थी, पर वह उपयोग पूरा होते ही उस वायु की उपयोगिता भी नष्ट हो गई। अब नई वायु चाहिए। नया साँस लेना पड़ेगा। यदि पुराने साँस पर ही सतुष्ट रहा जाए और यह सोचा जाए कि हमारे लिए तो इतनी ही वायु पर्याप्त है, ज्यादा लेकर क्या करेंगे तो यह विचार हानिकारक सिद्ध होगा, जीवन की प्रगति रुक जायेगी। ठीक यही बात उन्नति के संबंध में लागू होती है। आपने जो शक्ति पहले संपादित की थी, उसने एक हद तक आत्मा को बल दिया, ऊँचा उठाया, अब उसकी शक्ति समाप्त हो गई। एक बार भोजन किया था, उसकी उपयोगिता पूरी हो गई, वह पच गया तो नया भोजन चाहिए। एक बार साँस ली थी, वह अपना काम कर चुकी तो नई साँस चाहिए। एक समय जो उन्नति की थी, उससे उस समय उत्थान मिला। अब आगे और शक्ति प्राप्त करने के लिए और ऊँचा चढ़ने के लिए, नवीन प्रोत्साहन के लिए नई उन्नति चाहिए। एक गैलन पेट्रोल लेकर मोटर दस मील चल आई, अब उसे और आगे चलाना है तो पेट्रोल दीजिये, वरना वह जहाँ की तहाँ पड़ी रह जायेगी, आगे चलने का काम बंद हो जायेगा।
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- भौतिकता की बाढ़ मारकर छोड़ेगी
- क्या यही हमारी राय है?
- भौतिकवादी दृष्टिकोण हमारे लिए नरक सृजन करेगा
- भौतिक ही नहीं, आध्यात्मिक प्रगति भी आवश्यक
- अध्यात्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती
- अध्यात्म की अनंत शक्ति-सामर्थ्य
- अध्यात्म-समस्त समस्याओं का एकमात्र हल
- आध्यात्मिक लाभ ही सर्वोपरि लाभ है
- अध्यात्म मानवीय प्रगति का आधार
- अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष
- हमारा दृष्टिकोण अध्यात्मवादी बने
- आर्ष अध्यात्म का उज्ज्वल स्वरूप
- लौकिक सुखों का एकमात्र आधार
- अध्यात्म ही है सब कुछ
- आध्यात्मिक जीवन इस तरह जियें
- लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे
- अध्यात्म और उसकी महान् उपलब्धि
- आध्यात्मिक लक्ष्य और उसकी प्राप्ति
- आत्म-शोधन अध्यात्म का श्रीगणेश
- आत्मोत्कर्ष अध्यात्म की मूल प्रेरणा
- आध्यात्मिक आदर्श के मूर्तिमान देवता भगवान् शिव
- आद्यशक्ति की उपासना से जीवन को सुखी बनाइए !
- अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए
- आध्यात्मिक साधना का चरम लक्ष्य
- अपने अतीत को भूलिए नहीं
- महान् अतीत को वापस लाने का पुण्य प्रयत्न